पृष्ठ:बीजक.djvu/३८०

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( ३३२ ) बीजक कबीरदास । है वह ब्रह्म को निराकार अकर्ता निर्धर्मिक कही हौं कहो तो वह ब्रह्म को जान्यो कौन ? अरु वाको निर्वस्तु कही हौ कि, वह कुछ वस्तुनहीं है? देशकाल वस्तु परिच्छेदते शून्यहै कहो तो वह धोखई रहिगयो कि, कुछ वस्तु रहिगयो ! सो तिहारेही बातमें वह धोखा जान्यो परे है कि, कुछ नहीं है शून्यहै तेहिते परमपुरुषपर श्रीरामचन्द्रमें लागौ जाते माया ब्रह्मके पार है उनहीके पास पहुंचौनाई औ आवागमनते रहित वैजाउ ॥ ५ ॥ इति तिरसठ " शब्द समाप्त । अथ चौंसठवाँ शब्द ॥ ६४ ॥ | जोलहा वीनेहु हो हरिनामा जाकेसुर नरमुनि धरै ध्याना। ताना तनैको अउठा लीन्हे चर्वी चारिहु वेदा सर खूटी यक राम नरायण पूरण कामहि माना ॥ १ ॥ भवसागर यक कठवत कीन्हों तामें माड़ी सानी माड़ीको तन माड़ि रहो है माड़ी विरला जाना। त्रिभुवन नाथ जो मंजन लागे श्याम मुररिया दीला चाँद सूर्य दुइ गोड़ा कीन्हो माँझ दीप किय ताना ॥२॥ पाई करिकै भरना लीन्हो वे बांधे को रामा वे ये भरि तिहुँ लोकै बांधै कोइ न रहै उबाना । तीन लोक एक करिगह कीन्हो दिगमग कीन्हो तानै आदि पुरुष बैठावन बैठे कविरा ज्योति समाना ॥ ३ ॥ श्रीकबीरजी रामानंदके शिष्य हैं सो अपनी संप्रदाय बतौवहैं । १ कबीर साहब रामानन्दके कैसे शिष्य सौजनके हेतु-कवीरभानुप्रकाश, कबीर मन्शूर, रामानन्द मुष्टी और आत्मदासजीकृत कबीर सागर देखना चाहिये ।