पृष्ठ:बीजक.djvu/४००

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

( ३५२) बीजक कबीरदास । कर्म न वाके धर्म न वाके योग न वाके युगुती । सींगी पत्र कछुव नहिं वाके काहेक मांगै भुगुती ॥ ३ ॥ तैं मोहिं जाना मैं तोहिं जाना मैं तोहिं माहू समाना। उतपतिप्रलय एक नई होती तब कहु कौनको ध्याना ॥४॥ योगिया एक आनि किय ठाढो राम रहा भरिपूरी। औषधि मूल कछुव नहिं वाके राम सजीवनि मूरी ॥५॥ नवत वाजी पेखनी पखै बाजीगरकी बाजी। कहै कबीर सुनौहो सन्तों भई सो राज बिराजी ॥६॥ योगिया ऐसो है वद करणी। जाके गगन अकाशनधरणी। हाथ न बाके पाउँ न वाके रूप न वाके रेखा ।। विना हाट हटवाई लावै करे वयाई लेखा ॥२॥ योगिया कहे संयोगी याका ब्रह्मसंयोग करिकै जगत् करेहै याते योगिया माया सबलित ब्रह्मदे से वह योगिया की बद करणी है कहे निषिद्ध करणी है। जौने चैतन्याकाशमें अहंब्रह्मास्मि बुद्धि करै है तीन चैतन्याकाश मेरे लोकको प्रकाशहै तहां आकाश धरणी एक नहीं हैं ॥१॥ वह चैतन्याकाशको जो मानि लिया है ।कै सो महीं है। ऐसा जो समष्टि जीव चैतन्य ब्रह्मरूप सो वाके न हाथ है न पाउँ हैं न वाके रूप रेखा है जहां जीव नानाकर्म करै है जंगत् अरु बही जगत् कर्मनको फल पावैहै जहां यही लेनदेन है रह्यो है सो जो है हाट वाके नहीं हैं कहे देश काल वस्तु परिच्छेदते शून्यहै औ हटवाई लगौतै है माया कहे सबलित वैकै जगत् करते है अरु बया और को अनाज और और को नापि देइहै अरु ब्रह्म जो है बया यो माया सवलित बँकै ईश्वर रूपते जीवनके किये जे कर्मके फळेही ते जीवन को देइहै ।। २ ।। कर्म न वाके धर्म न वाके योग न वाके युगुती ।। सींगीपत्र कछुव नहिं वाके काहेको मांगै भुगुती ॥३॥