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पृष्ठ:बीजक.djvu/४०५

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शब्द । ( ३५७) देखिकै कूदि पैरैहै अरु ऐसेही प्रतिबिंब देखि स्फटिक शिलामें हाथी दांत टोरि डॉहै ॥ २ ॥ मर्कट मुठी स्वाद न विहुरै घर घर नटत फिरो कह कवीर ललनीके सुवना तोहिं कवने पकरो ॥३॥ अरु जैसे मर्कट मूटीमें है दाना नाके म्वादके लिये फैसि गये बानीगरके साथ नाचत बाँगैह सो कवरजी कहे हैं कि जै इनके सबके भ्रम होइहै तैसे हे नीव तेंहीं सब कल्पना करिलियो है अपनी कल्पनाने तोहको भ्रम होइहै नाना उपासना नना ठाकुर खोजत फिरेहैं । बिचारिकै देख तैौ जब तेरे कल्पना नहींरही नवते शुद्ध रहेहै जैसे सुवा ललनीको पकरि लेइहै तैसे तैहां ये सव कल्पना करिकै कल्पनामें बँधोहे जैसे सुवा ललना को नो छेड़िदेइ ती वृक्षमें पहुंचै जाइ तैसे मुँहूं जो कल्पनाको छाड़िदइ नै नोक कौन पकये हैं।परमपुरुष पर श्रीरामचन्द्र के पास पहुंच जाइ जब सब कल्पना छाडि शुद्ध है जाइ है तब साहब अपनो विग्रह देडहै तामें स्थितद्वै साहबके लोकको जाइहै तामें प्रमाण॥ “आदत्ते हरिहस्तेन हरिपादेन गच्छति' इतिस्मृतिः। अरु श्रीकबीर जी को मंगल प्रमाण ॥" चला सखी बैकुण्ठ बिष्णु माया जहां वारिउ मुक्ति निदान परम पद लेतहां ॥ आगे शून्य स्वरूप अलख नहि साख परै । तत्त्व निरंजन नान भरम जनि जनि चितधेरै ॥ आगे है भगवंत तो अक्षर नाउदै । तौन मिटावे कोटि बनावै ठाउहै ॥ आग सिंधु बलंद महा गहिरो जहां । कोनैया लैजाय उतौर को तहां ॥ कर अजपाकी नाव तो सुरति उतारिदै । लेइहीं अञ्जरनाउँ तो हंस उबारिहै ॥ पार उतर पुरुषोत्तम परख्यो जानहै । तवां धाम अखंड ते पद निर्वान हैं ॥ तहँ नहिं चाहत मुक्ति तो पद डारे फिरै । सुरत सनेही हंस निरंतर उचैरै ॥ बारह मास बसंत अमर लीला जहां । कहैं कबीर बिचारि अटल द्वै रहुतहा ॥ ३ ॥ इति छिहत्तरवां शब्द समाप्त है।