पृष्ठ:बीजक.djvu/४१३

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शब्द । (३६५) मैं बिनौहौं । ताको हरिके जानिबेमें दाक्ष कहे दक्ष ने कोई विरले दास ते पहि* हैं अर्थात् रामनाम जपिकै साहवर्क जाने हैं। यहि पदमें वाल्मीकि को शुकदेवको जयदेवको जो अर्थ हम किया हैं सोई अर्थ है काहे ते कि जेई वाल्मीकि शुकदेवको अर्थ केरै हैं तिनको यह ज्ञान नहीं रह्या कि तीन लोक जब ताना तानगये हैं ब्रह्मा विष्णु महेश बूटा भये हैं तव वाल्मीकि शुकदेव जयदेव नहीं रहे हैं ।। ५ ।। इति इक्यासीवां शब्द समान ।। अथ बयासीवां शव्द ॥ ८२ ॥ तुम यहि विधि समुझौ लोई । गोरी मुख मंदिर वजोई ॥१॥ एक सगुण षट चकहि वेथै विनु वृप कोल्हू मांजै ।। ब्रह्मै पकरि अग्निमें होमै मक्षगगन चढ़ि गाजें ॥२॥ नितै अमावस नितै ग्रहण होइ राहु ग्रास नित दीजै ।। सुरभी भक्षण करै वेदमुख वन वरलै तन छीजै ॥ ३ ॥ पुहुमिक पानी अंबर भरिया यह अचरज का कीजै । त्रिकुट कुंडल मधि मंदिरवाजै औघट अंवर भजे ॥४॥ कहै कबीर सुनोहो संतो योगिन सिद्ध पियारी। सदा रहै सुख संयम अपने वसुधा आदि कुंवारी ॥५॥ तुम यहिविधि समुझौ लोई।गोरी मुख मंदिर वजोई॥१ एक सगुण षट चक्रहि बेधै विनु वृष कोल्हू मांजै ।। ब्रह्मै पकार अग्निमें होमै मक्ष गगन चढ़ि गाजै ॥२॥ वह लोई जो है लपट कहे ज्योति से ब्रह्मांडमें है ताके यहि बिधिते तुम समझौ । अथवा लोई कहे हे लोगों ! तुम यहि बिधिते समुझौ गोरी जो है कुंडठिनी शक्ति नागिनी ताहीके मुख शरीररूपी मंदिर कहे मृदङ्ग अथवा मंदिर कहे घर