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शब्द । ( ३८१ ) प्रमाण ॥ “शब्दे ब्रह्माणि निष्णातो न निष्णायात्परे यदि । श्रमस्तस्य श्रमफलंह्यधेनुमिव रक्षत । इतिभागवते । सो जब वे गुरुवा मंत्र दियो तब बाणी को जो हाड़ गोड़ रहै ज्ञानकांड कर्मकांड ताको घूर पँवार दियो कहे ज्ञानकांड कर्मकांड घूर हैं तहां फेंक दियो । उपासनाकांडी वह मंत्र दैकै उपासनामें लगाइ दियो तहां मंत्र दियो सो उन न जप्यो जाते ज्ञागाग्नि उत्पन्न होइ अरु भ्रम जैरै औ धुवां जे हैं कल्मष ते निकसि नायँ सो बाणीरूपी वह मांसु ज्ञानामिते पकाइ नहीं गई अर्थात् बह मंत्रको अर्थ न जान्यो औ न अभ्यास कियो वह अज्ञानरूपी धुवां ग्रैगुआतै रह्यो निधूम न भई ॥ ३ ॥ शिर औ सींग कछू नहिं वाके पूछ कहां वह पाई । सव पंडित मिलि धन्धे परिया कबिरं वनौरी गाई॥४॥ औ शिर जेहैं नित्य शब्द औ कार्यशब्द ते वाके नहीं हैं औ चारि जे सींग हैं नाम धातु उपसर्ग निपात ते वाके नहीं हैं काहेते कि,वाको अनिर्वचनीय कैहहैं। तौ पूंछ जो ब्रह्म वैजैबो मोक्ष ताको कहां पावैगो अर्थात् जहांभर बचनमें अवैहैं। सो सव मिथ्याहै जो कहो मोक्षऊको रहि जाइबो न कह्यो तो रहि का गयो । तो शब्द तो तात्पर्य करके वर्णन करैहैं कि, निर्गुण सगुणके परे परम पुरुष जो मैं ताको सदाको अंश यह जीव है यह जो बिचार करै कि, मैं उनको ही तों बद्धही नहीं है मुक्त काहेते होइ मुक्तही बनोहो बद्र मुक्ततो कथन मात्रहै तामें प्रमाण ॥ “अज्ञानसंझौभवबंधमोक्षौ दौ नामनान्यस्त ऋतज्ञभावात्।अजस्रचिन्यात्मनि केवलेपरे विचार्यमाणे तरणाविवाहनीइति भागवते॥ अरु तात्पर्य कारकै शब्द यह मोहींको वर्णन करैहै सो भागवतादिकनमें प्रसिद्ध सुनैहै तऊ मृढ़ नहीं मानै है ॥ “शब्दब्रह्मपरब्रह्मममोभे शाश्वतीतनू ॥ अपने अपने अर्थ बनाइकै गाई हैहैं मोको नहीं जानै हैं सब पंडित धंधे में परि रहे हैं नानामत बनाइ रहेहैं तिनकी बनौरीको कबीर जे हैं जीव उनके सब शिष्य ते गावै हैं। अर्थात् अपने अपने आचार्यन के मैतमें आरूढ़ हैकै जो और कोई कैसे है तो लँडै हैं अंरु पारिख कारकै सव वेदनको तात्पर्य जो मैं हौं ताको नहीं जाने हैं। शब्द ब्रह्म तात्पर्य करिकै परम पुरुष पर जो मैं हैं ताहीको वर्णन करे हैं॥४॥ इति अट्टासीवां शब्द समाप्त ।