पृष्ठ:बीजक.djvu/४३०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

(३८२) बीजक कबीरदास । | अथ नवासीवां शब्द ॥ ८९॥ सुभागे केहि कारण लोभ लागे रतन जन्म खोये ।। पूरव जन्म भूमिके कारण बीज काहेको बोये ॥ १ ॥ पानीसे जिन पिंडै साजे अगिनिहि कुंड रहाया। दशै मास माताके गर्भ कड़ि वार लागिली माया ॥ २॥ बालकसे पुनि वृद्ध हुआहै होनी रही सो होये ।। जब यम ऐहैं बांधि लैजैहैं नयन भरी भरि रोये ॥ ३॥ जीवनकै जिन आशा राख्यो काल गहे है श्वासा।। बाजीहै संसार कबीरा चित चेति ढारो पासा ॥ ४ ॥ | हे सुभागे ! जीव तैंतो मेरौ है यह संसारमें नो औं लोभाकियो सो कौने कारण कियो काहेते कि आपने दुःख पाइवे को कोई उपाइ नहीं करैहै जैसे मनादिक कारकै संसार में परिगयो तैसे जो मेरो स्मरणकरत तो मैं हंसस्वरूपदेयों तामें स्थितकै मेरे धामको पहुँचते । सो तै रत्न जो है यह मानुषजन्म ताको धोइडारयो पूर्वजन्मकी भूमिकाके कारण कहे पूर्वजन्ममें जैसे कर्म करिराखे हैं तैसे सुख दुःख यह जन्म पावै है अरु जो यह जन्म करै हैं सो वह जन्ममें दुःख सुख पावैगो सो आँखिन तो देखि लिये कोई सुखदुःखके कारण रूप बीज तें काहेको बोये और सब पदनको अर्थ स्पष्टई है ॥ १॥ ४ ॥ इति नवासीवां शब्द समाप्त । अथ नब्बे शब्द ॥ ९० ॥ | गुरुमुख ।। संत महन्तौ सुमिरौ सोई । जो परसों वाचा होई। दत्तात्रेय मर्म नहिं जाना मिथ्यास्वाद भुलाना । मथिकै घृतको काढ्यो ताहि समाधि समान ॥२॥