पृष्ठ:बीजक.djvu/४५१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

शब्द । (४०३) छाँडि देइँगे ॥ २ ॥ जो हमारो कहो ब्राह्मण क्षत्री वैश्य न मान्यो जिनको वेदको अधिकार है ते वेदको तात्पर्य परम पुरुष पर श्रीरामचन्द्र को न जान्ये तौ शूद्र अंत्यनन की कहबई कहा करें ।। ३ ॥ योगी ॐ जंगम जेते । वे आप गये हैं तेते ॥ ४ ॥ काह कवीर यक योगी । तुम भ्रमी भ्रमी भो भोगी॥५॥ योगी नेगम जेते ते वही धोखा ब्रह्ममें लगिकै आपने अपने पौ रोड दये ।। ४ ।। श्रीकबीरजी कहैहैं कि तुम एकके योगी भयो कि हम आपके एक जोब्रह्महै तामें संयोग कार देइहैं कहे मिलाइ देईहैं सो यह नहीं ािर करतेहौ कि एक वही ब्रह्म जो जीव होतो तौ वासों भिन्न काहे होतो औं तुमको मिलाइवेको कहे परतो । जो कही यह ब्रह्महीको मायाते भ्रम भयो है। तव नानारूप देखन लग्यो है तो तुमही ब्रह्मको ज्ञानमय कहौहौ। 'सत्यं ज्ञान भनेते ॥ इत्यादि तौ वाको भ्रमहीं कैसे भयो अरु जो मायामें एती सामथ्र्यहै कि तुमको फोरिकै नाना रूप करि दियो है तौ जब तुम मिलहू जाउगे तब तुमको फेरि फोरिकै संसारमें न डारि देइगो का? जनन मरण न इँटैगो ताते तुम फेरि फेरि यह भवभ्रममें भ्रमि भ्रमिकै भोगी होउरो अर्थात् जब वह ब्रह्ममें लगे फेरि फेरि संसारही में परौगे ॥ ६ ॥ इति एकसै दो शब्द समाप्त । अथ एकसै तीन शब्द ॥ १०३ ॥ लोगो तुमहीं मतिके भीरा । ज्यों पानी पानीमें मिलिगो त्यों डुरिमिल्यहु कबीरा ॥१॥ ज्यों मैथिलको सच्चा वासोत्योहिं मरण होइ मगहर पास२ मगहर मरै मरन नहिं पावै । अंतै मेरै तो राम लजावै॥३॥ मगहर मैरै सो गदहा होई । भल परतीति रामसों खोई॥४॥