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पृष्ठ:बीजक.djvu/४८८

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(४४०) बीजक कबीरदास । माया सो समानैहै सो यतनी बात कोई नहीं जाने है कि, यैई जाहब के चीन्हन न देइहैं । स लक्ष्मीको औ पक्षको कहैहैं ॥ “सःपरोक्षे समाख्थातःसाच लक्ष्मीः प्रकीर्तिता ॥ ३३ ॥ इहा होइ होत नहिं जानै । जवहीं होइ तबै मन माने ॥ है तो सही लहै सब कोई ।जब वा हो तब या नहिं होई॥३४॥ ह कहिये बिष्कम्भको हा कहिये त्यागको । सो हे जीव या विष्कम्भ शरीरको त्यागहात कोई नहीं जानै है । जब शरीरत्याग द्वैजाइ है तबहीं जानैह कि, शरीरत्याग द्वैगयो । जामें जीव बँभारेहेहै सो शरीर में हंसरूप सही है। ता जीवको। परंतु सबकोई नहीं लगैहै कहे नहीं पावैहै। जब वो हंसशरीरहोइ जब या शरीरनहीं होइहै वाही हंसशरीर में बँभारेह है। ह विष्कम्भको औ त्यागको है हैं तामें प्रमाण ॥ “हेकोषवारणे प्रोक्तो हस्स्यादपि च शूलिनि । हानेपि हः प्रकथितो हो विष्कम्भः प्रकीर्तितः ॥ ३४ ॥ क्षक्षा क्षण परलय मिटि जाई । क्षेत्र परे तब को समुझाई १ | क्षेवप कोउ अंत न पायाकह कवार अमन गोहराया३५ | क्ष कहिये क्षेत्रको क्षा कहिये वक्षस्थलको । सो हे जीव ! तँ क्षत्रपति जे श्रीरामचन्द्रहैं तिनको बक्षस्थलमें तौ ध्यान करु तौ तेरी प्रलय जनन मरण क्षणैमें मिटिलाई । जब क्षेव कहे तेरो शरीर क्षय है जाइगो तब तोको को स मुझॉवैगो । क्षेव परे कहे शरीर क्षय द्वैगये कोऊ अंत साहबको नहीं पाया है । सो कबीरजी कहै हैं कि, याहीते तोको हम आगेते गोहरावै हैं कि फिरि क्या कैरैगो । क्ष क्षेत्रको औ वक्षस्थलको कहे हैं तामें प्रमाण ॥ ‘क्षश्च क्षत्रं क्षत्रपतौक्षो वक्षसि निगद्यते ॥ क्षत्रकहे क्षत्रपतीको बोधद्वैलाइ जैसेबल कहे बलरामको बोधद्वैजाइहै ॥ ३५ ॥ इति चैंतीसी संपूर्ण । १-‘स' ऑर्खाके पीछेकी बात और लक्ष्मीको कहते हैं। २-'ह' क्रोधकेरोकने और शूलयुक्तको कहते हैं छोड़ने और रोकनेकोभी कहते हैं । ३-१' दुःखसे बचाने वाले और छातीको कहते है।