पृष्ठ:बीजक.djvu/५०३

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कहरा । (४५७) नित उठि नौवा नाव चढ़तहै वरही बेरा वारिउ हो । राउरकी कछु खवर न जान्यो कैसेंकै झगर निवारिउहो ३ नौवा जो संन्यासी जौन आपनो मूड़ मुड़ावहै आनी को मूड़ि कै चेला बनाइ लेइहै सो वेषमात्र जो नाव तामें चर्टिकै संसार समुद्र पार होवा चाहै है औ नाना देवतन प्रतिपाद्य ने ग्रन्थ तेई हैं बरही कहे वोझा ताहीको बेरा रचि वारी जे नाना उपासना वारे हैं ते संसार समुद्रको पार होव! चाहै हैं । राउर जो परम पुरुष पर श्री रामचन्द्रको दर ताको जानतई नहीं या इगर कैकै निवारण होइ । साहवते तो चिन्हारिनि नहीं है कबहूँ माया पकरि लेईहै कबहूँ ब्रह्म पकरि लेइहै कबहूँ मन पकरिलेई है इत्यादिक जेई पावैहैं तेई घरि लेइ हैं सो बैंसक झगड़ा निवारण होइ ॥ ३ ॥ एक शाम पांच तरुणि बसें तिनमें जेठ जेठानी हो । आपन आपन झगर पसारिन प्रियसों प्रीति नानीहो ४॥ एकगांउ जो या संसार तामें पांच तरुण जे ज्ञानेंद्री ते बसै हैं ज्ञानेंद्री कहते कर्मेन्द्रिउ आइ गई, तिनमें जेठ मन जेठानी माया है सोई दशौ इंद्री आपन आपन झगर कहे अपने अपने विषय ओर मनको खैचत भई सो मनके अधीन है। जीव सोऊ वही कत चलो गयो परम पुरुष पर जे श्री रामचंद्र प्रीतम हैं तिन सों प्रीति नशाइ गई ॥ ४ ॥ भैसिन माहँ रहत नित वकुला तकुला ताकि न लीन्हाहो । गाइन माहँ बसेडु नहिं कबहूँ कैसेकै पद चीन्हाहो ॥ ५॥ । सो भैंसीजे दशौ इंद्री हैं तिनमें बकुला जो मन सो रहे है जैसे भैंसी जब जलमें परैहैं तब बकुला वाके ऊपर बैठ रहे है जो मछरी भैसिनके किलनी खाबेको आई सो बकुला खाय दीनो ऐसी इन्द्रा जब विषय ओर चली तब मनहीं भोग करै है इंद्रीद्वारा ताते मनको बकुला कह्यो है सो हे जीव ! तेंतो तकुलाहै कहे ताकनवारो है काहे न ताकि लीन्हा औ साहब के गावन वारे जे संत तिन गाइन में कबहूँ बसबै न किया परम पुरुष पर श्री रामचन्द्र को पद कैसेकै चीन्हो ॥ ५ ॥