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{ ४६० ) बीजक कबीरदास । हे बौर जो ऊपर बहुत ऊजर बनेरह्यो बहुत आचार किया तौ कहा भयो भीतर तो अजहूं करिये हो औ तनकी बड़ी वृद्धता मान्यो तौ हे बौरे ! कहा भयो मनतो अजहूं बार कहे लारकवा बनाहै वही चाल चलैहै ॥ २ ॥ ॐ मुखके दांत गिरिगये तो हे बौरे कहा भयो अन्तःकरणके ने बिषय के चना चाबनवारे ऐसे लोहेके दांततो गैषे न भये काम कोध मद लोभ बनेन मिटबै न भये ॥ ३ ॥ तनकी शक्ति सकल घटि गयऊ मनहिं दिलासा दूनीहो। कहै कबीर सुलोहो संतौ सकल सयानप उनीहो ॥४॥ | हे बौरे ! तनकी सकल कहे रूप बिषय करनवाली सामथ्र्य घटिगई औ संगी मरिगये पै दिलकी दिलासा जो तृष्णा सोतौ घटिबे न भई सो कबीरजी है हैं कि हे संतो ! तुम सुनो या सब जीवनकी सयानपऊनी है अर्थात् तुच्छ है बिना रामनाम के जाने जनन मरण न छूटेहै तामें प्रमाण कबीरजाका ॥ * जोरै रसना राम न कहिहै । उपजत बिनशत भरमत रहिहै । जस देखी । तरुवर की छाया । प्राणगये कहु काकी माया ॥ जीवत कछु न किये परमाना । मुये मर्म कहु काकर जाना । अंत काल सुख कोउ न सोवें । राजा रंक दोऊ मिलि रोवें ॥ हंस सरोवर कमल शरीरा । राम रसायन पिवै कबीरा ॥ ४ ॥ इति तीसरा कहरा समाप्ता ।। | अथ चौथा कहरा ॥४॥ ओढ़न मेरा रामनाम मैं रामहि को बनिजारा हो । रामनामका करौं बनिजमैं हर मोरा हटवाराहो ॥ १॥ सहस नामको करौं पसारा दिन दिन होत सवाईहो । कान तराजू सेर तिन पौवा डहकिन ढोल बजाईहो ॥२॥ सर पसेरी पूरा करले पासंघ कतहुं न जाईहो।। कहै कबीर सुनोहो संतो जोरि चले जहडाई हो ॥ ३॥