पृष्ठ:बीजक.djvu/५३

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(२) बीजक कबीरदास ।

योगमया यकु कारणे, ऊजे अक्षर कीन्ह ॥
याअविगतिसमरथकरी, ताहिगुप्तकरिदीन्ह ॥ ७ ॥
श्वासा सोहं ऊपजे, कीन अमी बंधान ॥ 
आठ अंश निरमाइया, चीन्हौ संत सुजान ॥८॥ 
तेज अंड आचित्यका, दीन्हो सकल पसार ॥ 
अंड शिखा पर वैठिक, अधर दीप निरधार ॥ ९ ॥
ते अचिन्त के प्रेमते, उपजे अक्षर सार ॥
चारि अंश निरमाइया, चार वेद विस्तार ॥१०॥ 
तव अक्षरका दीनिया,नींद मोह अलसान ॥
वेसमरथअविगतकरी, मर्मकोइनहिंजान ॥११॥ 
जव अक्षरके नगै देबी सुरति निरवान॥
श्यामवरण यकअंड है, सो जलमें उतरान ॥१२॥
अक्षर घटमें ऊपजे, व्याकुल संशय शूल॥
किन अंडा निरमाइया, कहा अंडका मूल ॥१३॥ 
तेहि अंडके मुखपर, लगी शब्दकी छाप ॥
अक्षर दृष्टिसे फूटिया, दशद्वारे कढ़ि बाप ॥१४॥
तेहिते ज्योति निरञ्जनौ; प्रकटे रूप निधान ॥ 
काल अपरवल बीरभा, तीनिलोक परधान ॥१६॥
ताते तीनों देव भे, ब्रह्मा विष्णु महेश ॥ 
चारिखानितिनसिरजिया, मायाके उपदेश ॥१६॥
चारि वेद षट शास्त्र, औ दशअष्ट पुरान ॥
आशद जग बाँधिया, तीनों लोक भुलान ॥१७॥