पृष्ठ:बीजक.djvu/५२

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                बीजक कबीरदास।.
               अथ आदिमंगल।
दोहा-प्रथमै समरथ आप रहे, दूजा रहा न कोइ ॥ ।

दूजा केहि बिधि ऊपजा, पूछत हौं गुरु सोइ ॥ १ ॥ तबसतगुरु मुखबोलिया, सुकृतसुनोसुजान ॥ आदि अन्त की पारचै, तोसों कहौं बखान॥२॥ प्रथमसुरति समरथ कियो, घटमें सहजउचार।। ताते जामन दीनिया , सात करी विस्तार ॥३॥ दूजे घट इच्छा भई, चितमनसातो कीन्ह॥ सातरूप निरमाइया, अविगत काहु न चीन्ह ॥ ४॥ तवसमरथ के श्रवणते, मूलसुरति भै सार॥ शब्द कला तातेभई, पाँच ब्रह्म अनुहार ॥॥ पाँचौ पाँचै अंड धार, एक एकमा कीन्ह ।। दुइ इच्छा तहँ गुप्तहें, सो सुकृत वितचीन्ह ॥ ६॥