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दसंत । (४८६). यह कह कवीर ये हरिके दास । फगुवा मागै वैकुण्ठ वास७॥ । सो या हठयोग कारकै जानै कि मैं मुक्त होउँगो, तौ या समाधिमें मायाहीते नहीं छूट्यो मुक्त कहां होइगो । ताते श्रीकबीरजी कहै हैं कि, हे जीवात्मा ! हरिके दास तें बैकुंठबासको फगुवामांगै अर्थात् फगुहार फगुवा खेलाइकै फगुवामांगै हैं सेनँहठयोगकियो ताको फल फगुवा रानयोग मांगु जाते वैकुंठ बासहोई ॥ ७ ॥ | इति दूसरा वसंत समाप्त है। अथ तीसरा बसंत ॥३॥ मैंआयउँमेहतमिलनतोहिं।अवऋतुवसन्तपहिराउ मोहिं१ है लंबी पुरिया पाइ झीन । तेहि सूत पुराना खुटा तीन ॥२॥ शर लागे सै तीनि साठि । तहँ कसन बहत्तर लागगांठि॥३ खुर खुर खुर खुर चलै नाविहवैठिजोलाहिनिपलथिमारि४ । सो करिगहमें दुइ चलाहि गोड़ाऊपर नचनीनचि करैकोड़५ हैं पाँच पचीसौ दश द्वार। सखी पांच तहँ रचीधमार ॥६॥ | वें रंग बिरंगी पहिरै चीर । धरि हरिके चरण गावै कबीर ॥७॥ मैं आयउ मेहतर मिलन तोहिं।अवऋतुवसंतपहिराउमोहिं १ हैं लंबी पुरिया पाइ झीन । तेहि सूत पुराना खुटा तीन ॥२॥ | जीव कहैहैं मेह कही बड़ेको औं जो बड़ाते बड़ा होइ ताकी मेहतर कहे हैं। फारसीमें। सो ईश्वरनते ब्रह्मते जो बड़े श्रीरामचंद्र तिनसों जीव कहै है कि, मैं तुमको मिलन आयेाहीं । सो जौने लोकमें सदा बसंत रहै है खो मोको पहिराओ अर्थात् मेरो प्रवेश कराइ दीजे । ताना रूप जो मेरे शरीरको बसंत ताते छुड़ाइये ॥ १ ॥ सो लम्बी पुरिया कौन कहावै जो ताना तनै है पूरे हैं।