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बसंत । (४९७) संसार सागरको पार करनवारो एक राम नामही है कमें प्रमाण पद ॥ ‘माधव दुख दारुण सहि न जाइ । मेरी चपल बुद्धि ताते का बसाइ ॥ तन मन भीतर बस मदन चोर । तब ज्ञान रतन हरि लीन मोर ॥ हौं मैं अनाथ प्रभु कहाँ काहि । अनेक बिगूचे मैं को आहि ॥ ॐ सनकसनंदन शिव शुकादि । आपुन कमला पति भो ब्रह्मादि ॥ योगी जंगम यति जटाधारि अपने अवसर सब गयेहारि॥ सो कह कबीर कार संत सात । अभिअंतर हरिसों करहु बात्॥ मन ज्ञान जान कर कार बिचार | श्री राम नाम भनु होउ पार ॥ १-६ ।। इति दशवां वसंत समाप्त । अथ ग्यारहवाँ बसन्त ॥ ११ ॥ शिवकाशीकैसीभैतुम्हाराअजहूंहोशिवदेवहुविचारि ॥१॥ चोवाअरुचन्दनअगरन। सवघरघरस्मृतिहोइपुरान॥२॥ वहुविधिभवननमेलगैंभोग असनगरकोलाहलकरतलोग३ बहुविधिपरजानिर्भयहैंतोर। तेहिकारणचित हैढीठमो॥४॥ हमरेवालककरयज्ञान । तोहीहरिकोसमुझवैआन ॥५॥ जगजोजेहिसोंमनरहललायसजिवकेमरेकहुकहँसमाय ६ तहंजोकछुजाकरहोयअकाजहिताहिदोषनहिंसाहवलाज ७ तवहरहर्षितसोकहलभेवू । जहँहमहातहँदुसरकेव ॥ ८ ॥ तुमदिनाचारिमनधरहुधीरापुनिजसदेवहुतसकहकवीर९॥ शिवकाशीकैसीभैतुम्हारिअजहुंहोशिवदेखहुविचारि ॥१॥ चोवाअरुचन्दनअगुरपानासवघरघरस्मृतिहोइपुरान ॥२॥ बहुविधिभवननमेलगैंभोग असनगरकोलाहलकरतलोग ३ वहुविधिपरजा निर्भयहैंतोरातेहिकारणचित हैढीठमोर ॥४॥ | श्री कबीरजी कहै हैं कि जब मैं बालापन में साधन करत रह्यों है तबहीं देवतनको दर्शन होत रह्यो है। सो मैं महादेवजीते पूछ्यो कि, यह काशी