पृष्ठ:बीजक.djvu/५६५

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हिंडोला । (५२१ ) तेहि झूलबेकी भय नाहिं जो संत होहिं सुजान। कहे कबीर सत सुकृत मिलै तौ फिर न झूलै आन९॥ भर्म हिंडोलना झुलै सव: जग आय । जहँ पाप पुण्यके खम्भदोऊमेरु माया नाय । तहँ कर्म पटुली बैठिकै को को न झूलै आय ॥ १ ॥ यह लोभ मरुवा विषय भमरा काम कीला ठानि ।। दोउ शुभ अशुभ बनाय डांड़ी गहे दून पानि ॥२॥ परम पुरुष पर श्रीरामचन्द्र के बिनाजाने भरमको हिंडोला सब संसार झूलैहै कैसे है हिंडोला; जहां पाप पुण्य रूप दोऊ खंभहैं, माया जो है सो मेरुकहे गोलाहै, जौनेमें कर्मरूपी पटुली है, ताहीमें बैठिकै को नहीं झुल्यो अर्थात् सब झुल्यो है ॥१॥ लोभ जो है सोई मरुवा लगो है, विषय जो है सोई भमरा है, काम जो है सोई कीला है, औ शुभ औ अशुभ जे उपासना तेई हांड़ी हैं। ताको पाणित गहिकै सब झूलेहैं ? को को झूलै हैं ताको आगे कहे हैं ॥ २ ॥ झूले सो गण गन्धर्व मुनि नर झूले सुर गण इन्द्र । झूलत सु नारद शारदा हो झुलत व्यास फणिन्द्र ॥३॥ झूलत बिरंचि महेश मुनि हो झुलत सूरज इंदु । औ आपु निर्गुण सगुण वैकै झूलिया गोविंदु ॥ ४॥ | गन्धर्व मुनि नर सुरगण इंद्र नारद शारदा व्यास फणीन्द्र जे हैं शेष महेश जेहैं बिरश्चि सूर्य चंद्रमा ये सब झूलैहैं और कहां तक कहैं सगुण निर्गुण रूपते अर्थात् चित्अचित् के अंतर्यामी ढुकै गोबिंद जैहैं तेऊ झूले हैं ॥३॥४॥ | छ चारि चौदह सात यकइस तीन लोक बनाय ।। चौखानि वानी खोजि देखौ थिर न कोइ रहाय ॥३॥ छः जे शास्त्रहैं, चारि जे वेद हैं चौदह ने विद्याहैं, सात जे द्वीप हैं, औ इक्कीसौ जैहैं सात शून्य सात सुरत सात कलम, यतनमें परे जे तीनिउ लोककी