पृष्ठ:बीजक.djvu/५६४

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 अथ हिंडोला। भर्म हिंडोलना झूलै सब जग आय ॥ जहँ पाप पुण्यके खंभ दोऊ मेरु माया नाय । तहँ कर्म पटुली बैठिकै को को न झूलै आय ॥ १ ॥ यह लोभ मरुवा विषय भमरा काम कीला ठानि । दोउ शुभ अशुभ वनाय डांड़ी गह्यो दूनौ पानि ॥२॥ झूले सो गण गंधर्व मुनि नर झुले सुर गण इन्द्र। झूलत सु नारद शारदा हो झुलत व्यास फणिन्द्र ॥३॥ झूलत बिरंचि महेश मुनि हो झुलत सूरज इन्दु ।। औ आप निरगुण सगुण वैकै झूलिया गोविंदु ॥ ४॥ छ चारि चौदह लात यकइस तीन लोक बनाय। चौ खाने बानी खोजि देखौ थिर न कोइ रहाय ॥६॥ शशि सूर निशि दिन संधि औं तहँ तत्त्व पांचों नाहिं । कालहु अकालहु प्रलय नहिं तहँ संत विरले जाहिं ६॥ खण्डहु ब्रह्मण्डहु खोजि षट दरशन ये छूटे नाहिं। यह साधु संग बिचारि देखौ जीउ निसतरि जाहि॥७॥ तहके विछार वह कल्प बीते परे भूमि भुलाय।। अब साधु संगति शोचि देख बहुरि उलट समाय८॥