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साखी । (५३५) | इहई कहे यहीं संसारमें सम्बल कह कलेवा सम्पन्न कारले आगें । विषमी बाट कहे कठिन दुखदाई बाटको, सो श्री कबीरजी कहै हैं कि, आगे न जागे कौनी योनि में परैगो और वहाँ कछु किये होइगा कि नहीं । अथवा जो या कहो कि, स्वर्गमें विसाहन करि लेईंगे अर्थात् सौदा कारलेईंगे अर्थात् वहैं साहबको जानन वारो कर्म कारलेईंगे । तो वहां न बनिर्या है न हाट है अर्थात् वह तो भोगभूमि है कर्म भूमि नहीं है स्वर्ग के शरीर से केवल मृत्यु लोकमें किय कर्मनको भोग होइहै कर्म कैरिवे को स्थानतो या मनुष्य शरीर औरे या मृत्यु लौकही है । ताते श्री कबीरजी कहै है हे जीवो ! यहांहीं सुकर्म कर लेउ ॥ ९ ॥ जो जानौ जिव आपना, तो करहु जीवको सार। | जियरा ऐसा पाहुना, मिलै न दूजी बार ॥ १० ।। | हे जीवो! जो अपने स्वरूप को जानो तो जीव का सार जो सार शब्द तामें रकारके समीप मकार आपने स्वरूपको करौ अर्थात् साहबको जानि साहबको होउ । सो हे जीवो !रा अर्थात् रामनाम ऐसो पाहुना दूजी बार ना मिलेगा । भाब यह है कि, याही मनुष्य शरीर में मिलैगो और कहीं ना मिलैगो । १० ।।। जो जानहु पिव आपना, तो जानौ सो जीव ।। पानिपचाबहु अपना, पानी मांग न पीव ॥ ११ ॥ | जो अपना पीव जे साहब हैं तिनको जानौ तो हम तुमको जानैं कि, तुम जीव हौ । पानिप जो शोभा सो जो अपनी शोभा ( प्रतिष्ठा ) चाहो तै पानी ने गुरुवा लोगों की नाना वाणी है तिनको मागके ना पिउ अर्थात् गुरुवन ते अपने साहबको ज्ञान मत लेउ वे तो ठग हैं तुझे ठग लेईंगे ॥ ११ ॥ पानि पियावत क्या फिरो, घर घर सायर बारि। तृषावन्त जो होयगा, पीवेगा झख मारि ॥ १२ ॥ साहब कहैं हैं श्रीकबीरजीसे । हे कबीर ! मेरो उपदेश रूप पानी जीवन को पियावत घर घर का (क्या ) फिरो हौ । सबके समुद्र भरे है अर्थात