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साखी । (५४१) हृद्या भीतर आरसी, सुखतो देखि न जाय ॥ मुखतोतबहीं देखिहौं,जब दिलकी द्विविधा जाय॥२९॥ हृदय भीतर जौ आरसी है तौनेमें आपनेरूपको जो मुख सो नहीं देखों जायदै वा बिचारकरिके देखोजाइहै सो मुख जो तुम्हारो स्वरूप सो तबहीं देखिहाँ जब मैं मोर या दिबिधा जात रही कि, चित अचित रूप सब साहबैके देखो गे ॥ २९ ॥ ऊँचे गाँव पहाड़ पर, औ मोटे की बाँह ॥ ऐसो ठाकुर सेइये, उबरिये जाकी छाँह ॥ ३०॥ जोगांव ऊँचेपर होइहै तहां बूड़ाकी भयनहीं होइहै, जाके जबरेकी बांह होइहै ताको डर नहीं होय है ऐसे ऊँचो गांव जो साकेत, तहां साहब ने हैं। तिनकी जहां बांह है ऐसे जे साहबहैं तिनको बाहकी छांहमें टिकौ जाते. उबरौ । उहां मायाके बूड़ाको डर नहीं है इहाँ मन मायादिकनमें परेहौ इनमें कालते न बचोगे ॥ ३० ॥ ज्यहि मारग गे पण्डिता, तेही गई वहीर ॥ ऊँची घाटीरामकी, त्यहि चढ़ि रहे कवीर॥३१॥ जौने मार्गमें राम नाम जाने बिना पण्डित गये, वही मार्ग है मूख जात भये अर्थात् पापीपुण्यवान सबवहीयमपुरी गये । कबीर जी कहै हैं कि, ऊँची घाटी जो रामनाम तामें आरूढ़वैकै हे कायाके वीर कबीर माया के बूड़ाते बचिजाऊ ॥ ३१ ॥ हे कवीरतें उतरि रहु, सँवल परोह न साथ ॥ सबल घटे औ पग थके, जीव विराने हाथ ॥ ३२ ॥ गुरुवालोग मोको समझायो हे कबीर ! तें ऊँचीवाटी जो राम नाम तौनेते उतरिरहु न तेरे सँबलकहे कलेवा है न परोहनकहे बाहन साथहै । सो सँबळ औ पगु जब थाकैगो तब जीव तो बिराने हाथ लै जाइगो । जो हमारे पास आवोगे तो ज्ञान योगादिक सम्बल बतायँगे । अहब्रह्मास्मि बाहनदेयँगे तामें अरूदृढुकै संसारसमुद्र पार है जाइगो ॥ ३२ ॥