पृष्ठ:बीजक.djvu/५९

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(८)

                बीजक कबीरदास ।
रूपते प्रकटभई साररामनामको कहैं हैं तामेप्रमाणसाखी कबीरजीकी ॥ रामैनामहैनिजसारू । औसबझूठसकलसंसारू ॥ १ ।। साहब जो सुरति दियोंहै सो वह सुतिके चैतन्यतात नामसुन्यो अर्थात साहबजो याको गौहरायो कि रामनामको जपिकै बिचारिकै मोकोजाना तो मैं हंसस्वरूप के अपने पास बुलाइछेउँ सो सुनिकै रामनाममें जगत् मुख अर्थ है ताको ग्रहण कियो औ शब्दमें लगाई दियो । वही राम नाम लैंकै शब्दरूप बाणी उचहै सो कबीर जीकी रमैनी में आगे लिख्यॉहै ॥ “ रामनामलै उचरी बाणी " ॥ वहीं रामनाम ते शब्द कलाबाणी होतभई सो पांच ब्रह्म के अनुहार हैं। पांच ब्रह्म कौन ते कहै हैं सोह, ररकार, ओंकार, अकार, पराशक्तिरूप र परम श्री कबीर जी के भेदसारग्रन्थ को प्रमाण ॥ * प्रथम शब्द सोहं जो कीन्हा । सबघट माहीं ताकर चीन्हा । ररंकार यक शब्द उचारी । ब्रह्मा विष्णू जपें त्रिपुरारी ॥ ओंकार शब्द जो भयऊ । तिनसबही रचना करियऊ । शब्दस्वरूप निरंजन जाना । जिनयह कियो सकलबंधाना ॥ शब्दस्वरूपी शक्ति सो बोले । पुरुष अडोल न कबहूँ बोलै ॥ ५ ॥ 
     दोहा-पांचौ पांचै अंडधरि, एक एकमा कीन्ह ॥
       दुइइच्छा तहँगुप्तहैं, सो सुकृतचितचीन्ह ॥६॥
ते पचहुंनको पांचअंडकह पांचस्वरूप बनाइकै एकएकस्वरूपमें एक एक अक्षर राखत भये औ दुइ इच्छाजे प्रथमकहिआये एक वह इच्छा कारणरूपा जब साहब सुरति दियो है तब जो रही है साहब, मुख नहीं होनादिया याको बिनाशिकै जगत् मुख कियो औ दूसरी वह सुरति पाईंकै जगत्मुख होइकै अपने अनुभव ब्रह्मको खड़ाकियो वह ब्रह्म मायासबलित द्वैगई तीन माया . आदिशक्ति गायत्रीरूपा इच्छा । सो ये दोनों इच्छा पचहुंनमें गुप्तहै सो कबीरजी कहैहैं कि हे सुकृतचित्तमं चीन्हों मैं बर्णन करौहा बिचारिकै देखो ये पचहुँनमैदोनों इच्छाहैं कि नहीं ? ये सिगरेब्रह्म जे सारशब्द के जगतमुख अर्थ ते भये हैं ते माया सबलित हैं कि नहीं ? तुम चीन्हों सो आगे कहै हैं ॥ ६ ॥