पृष्ठ:बीजक.djvu/५९४

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(९९४) | बीजक कबीरदास । सुकृत वचन मानै नहीं,आप न करे विचार ।। कहैं कबीर पुकारिकै, सपन्यो गो संसार ? ।। ६६ ॥ | सुकृतसाहब अथवा सुकृतसन्त अथवा सुकृत बचन जो मैं कहौहीं कि साहबको भजनकरो सो नहीं मानै हैं जो मनमें आवै है सो विचारकरै हैं । सो कबीरजी पुकारकै केहहैं का उनको स्वप्न्यो में संसार गयो ? अर्थात् स्वमेहूमें संसार नहीं गयो यह काकुहै ॥ ६५ ॥ लागी आग समुद्रमें,धुआँ प्रकट नहिं होइ ।। की जानै जो जरि मुवा, की ज्यहि लाई होइ ॥६६॥ समुद्रुमें आगिबड़वाग्नि लगी है औ वाको धुआँ नहीं प्रकट होइहै सो वाको सो जानै है जो वामें जारजाय कि जाकी वह बड़वाग्नि लाई कहे लगाई होय सो जानैं अर्थात् संसार में मायाब्रह्म की अग्नि लगिरही है ताको वही जानै जाकोज्ञान भयोहोय या समझैकि माया ब्रह्मकी अग्निमें हम जरेजाय हैं । अथवा सो जानै जाकी अग्नि बनाई है संसार रच्यो है ॥ ६६ ।। लाई लावनहारकी, जाकी लाई पर जरै ॥ बलिहारी लावन हारकी, छप्पर वाचै घर जरै।। ६७ ॥ यहआम किसकी लगाई है ताकेलायेते सगुणनिर्गुण जेदोनों पर ते जरै हैं। औ घरजे हैं पांचों शरीरते जरिजाते हैं तामें प्रमाण ।। श्रीकबीरजीको पद । * अबतौ अनुभव अग्निहि लागी । घरि घरि तन जारन लागी ॥ यह अनुभव हम कासों कहिये बूझै कोउ बैरागी ॥ ज्येठरी लहुरी दोनों जरिया जरी कामकी बारी । अगम अगोचर समुझि परै नहिं भयो अचम्भौ भारी ॥ सम्पति जरी सम्पदा उबरी ब्रह्म अगिनि पसारी । कहै कबीर सुने हो सन्तै। बड़ी सो कुशल परी ॥ ६७ ॥ बुन्द जो परा समुद्रमें, सो जानै सब कोइ ।। समुद्र समाना बुन्दमें, बूझै विरला लोइ ॥ ६८ ॥