पृष्ठ:बीजक.djvu/६३७

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साखी । {५९९ } करैहै औ बहै साउज जो है जीव से शरीरनको पायके आधिदैविक आधिभौतिक आध्यात्मिक जे तानों ताहैं तेई घाम हैं तिनही जरै है से हे पण्डित तुम बिचारकरि कै असारको त्यागकरायकै सार जे साहब श्रीरामचन्द्र तिनकेाबत ओ तौ तीनों तापते जीव छुटै ॥ १९१ ।। । पार्दैन बुहुमी नाले, रिया करते फल ।।। हाथन परत्वं तौलते, तेहि धरि रुवायो काल।। १९३३३ जे हाथवे पर्वत तौलते रहे हैं। पावले पुहुन पदे रहे औ समुद्र एकफाल करते रहे हिरण्याक्षादिक दिन के च ।। १९३३ छ ज दूध बटर, इंटे यि हुँचा ३३ दूधवा झटि की हु, हू व ॐ ॐ ।।१९३३ मन हे नवीन दान में होते आले मह ऐसो कै तौ देह धेरै अब यहदूब मनुष्यशरीर यो । कांजी डिपका जो बोखाब्रह्म लागि ता; दूध जे मनुष्य शरीर सो को या कहे पशुतुल्य भया धीव साहब है ताको नाशद्वै गयो । अथव-ऊपरकी साख बड़बड़े पराक्रमी झवाइ इ ई उ कहि आई हैं । अब या पाखी कहैं हैं हे दूध व ! हैं यः शरीरको अभियान के कहा लन्दा विषद कहे इनमें लावि गते । स है दूध हैं कह नै भन बटोरय, अर्थात् नौ कहिय नवान्न अन्ः हि जन मानी हुई मानते हैं नाना प्रकारके नवीन भतन के गुरुदनले सुनिके वाही दिले अन ३ है कांजाकाटिएक; ( जिन्दु ) तो आय कश्यापर वही मुझ३ मा डार अपने में मिलायलिये तुडू मन मिलिके मन है गयो । ताते जो अनमें साहबको मिलनक शक्ति होत वीवो नाश & गई । सो आग में शुद्धरहे स्वच्छ रहे तेरो संग किया सई व सुधरि जाते रहे हैं अर्थात् ब्रू आपने जानिके जीव साहब होते हैं हैं सो तोक गुरुवालाई नाना इतन लगायके काजी ( पानी ) बनाई डाइये । अथवा जे छाछ के बाद पेंटन डारिदेई तौ घाख जरि जाइ है तेरे तेरे लंगकरिके जीव वारि नाही के