पृष्ठ:बीजक.djvu/६५७

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साखी । | ( ६१९) बारह लक्षमें लगायो अर्थात् छःशास्त्रके सिद्धांतमें छःदरशन में लगाय दि बारह बाट भयो मोको न जान्यो सो जब ज्ञानरूपी कसौटीमें कस्यो कि साहब को ज्ञान है कि नहीं तब पीतरही द्वैगयो जगदमुखै ठहरयो साहबमुख न ठहरयों सहाबको ज्ञान सोना न ठहरये ॥ २४४ ॥ कबिरन भक्ति विगारिया, कंकर पत्थर धोय ।। | अन्दरमें विषराखिके, अमृत डारै खोय ॥ २४॥ कबिरा जे जीव हैं ते भाक्त को बिगारि डारयो कंकर जो है जौने को पत्थर | जो हे मन तामें धायकै॥“पाहन फोर गंगयक निकरी चहुँदिशि पानी पानी॥ या पदमें पाहन मनको लिखि आये हैं सो पाषाणमें जो कंकरधोवै तौ और चुरचूरदै जाये सो मेरे भक्तिरूपी जलमें अपने अणुजीव कन्करको तें नहीं धोये पाथरमें धोये ताते चूर-चूरहै नानामत नानादेवमें लागे आपने स्वरूपको न जाने अन्दरमें बिषयरूपी बिषराखि अमृतरूप साहबको ज्ञानताका खोइ डायो॥२४५॥ रही एककी भई अनेककी, बेश्या बहुत भतारी ॥ कहकबीर काके सँगजारिहै,वहुत पुरुषकी नारी २४६॥ | गुरुमुख । साहब कहे हैं कि हैं जीव! तें तो मेरो रह्मो है सो तें अब बहुत मतनमें : लगिकै बहुत मालिक मानन लग्यो सौ कौन तेरो उद्धार करैगो बहुत भतारी बेश्या काके काके साथ जैरैगी ॥ २४६ ॥ तनबोहित मन कागहै, लखयोजन उड़ जाय ॥ कवहीं दरिया अगमवह, कबहीं गगन समाय ॥२४७॥ ये चारिउ शरीर वोहित कहे नावहैं तामें मनरूपी काग बैठा है सो लख यो जनलौं उढ़ि जायसै कबहूँ संसार समुद्र में वहत रहै है | कवहूं पँचवां शरीर जो कैवल्य चैतन्यकाश अगम जावे लायक नहीं तामें महाप्रलयादिकनमें समाये है सो ने हरिकी शरण जायहैं ते यहि संसार समुद्रको गौखुरकी तुल्य उतर