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(६२० ) बीजक कबीरदास । जाय है तामैं प्रमाण ॥ इच्छाकर भवसागर बोहित राम अधार। कह कबीर हरि शरण गहु गोबछ खुर बिस्तार ।। २४७ ॥ ज्ञान रत्नकी कोठरी, चुपकार दीन्हो ताल ॥ पारखि आगे खोलिये, कुंजी वचनरसाल ॥ २४८ ॥ ज्ञान रत्नकी जो कोठरी है तामें चुपको तारा. दीन्हे ही रहिये जो कोई समुझनेवारो पारखीहोइ ताहीके आगे रसालबचन कुनीते चुपको तार खालिकै ज्ञानको प्रकटकरिये काहेते कि जे नहीं समुझे हैं तिनके आगे न कहिथे साहबको ज्ञानरत्न वे कहाजानें ॥ २४८ ॥ स्वर्गपतालके वीचमें, द्वैतुमरीयकबिद्ध ॥ षटदर्शन संशयपरो, लखचौरासीसिद्ध ॥ २४९ ॥ यह स्वर्ग पतालरूपी वृक्ष में जीव ईश्वररूप दुइतुमरीलगी हैं तामें जीवरूपी तुमरीबेधी है कहे जीवहीते नानाशब्द निकसै हैं शरीर सारी हैं सो येई ने जीवहैं षट्दर्शनआदिदैकै तिनको नाना मंतकरिकै संशयपरो है साहबको नहीं जानै हैं एक सिद्धांत नहीं पाँवै हैं तिनको चौरासी लाख योनि सिद्धि बनी हैं। भटकतही रहै हैं ॥ २४९ ॥ सकलौदुरमतिदूरिकरु, अच्छाजन्मबनाउ ॥ कागगवन बुधिछोड़िदे, हंसगवनचलिआउ ॥ २५० ॥ साहब कहै हैं कि अरे जीव ! तेरो जो सकलहै शरीर सोई दुर्मति है सो 'पांचौ शरीरनको छोड़िदे औ आपनो अच्छी जन्म बनाउ कागबुद्धि का त्यागु मेरो दियो हंस शरीर तामें टिकिकै मेरे पास आउ ॥ २५० ॥ जैसीकहै कुरै जो तैसी, रागद्वेष निरुवारै ॥ तामें घटै बर्दै रतिऔ नहिं,यहिविधिआपसँभारै॥२१॥ गुरुमुख । साहबक कहै हैं कि जैसो उपाय मैं तेरे छुटिबेको कहि आयो है तैसोकरे औ संसारमें नाना रागद्वेष करिराख हैं ताके निरुवारै मोमें प्रीति रत्तिउभर धेरै त पा३ एकरसह आ3. ॥ २५१ ॥ ।