पृष्ठ:बीजक.djvu/६८१

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साखी। भरमिरहे सब बरणमहँ, हिन्दुतुरुक: बखान । कहै कबीर बिचारिकै, बिनगुरुको पहिचान ॥ भरमत भरमत सब भरमाना, रामसनेही बिरला जाना ॥ ३३५ ॥ साई नूरदिल एकहै, सोई नूर पहिचानि ॥ जाके करते जगभया, सो बेचून क्यों जानि ॥३६॥ | साई जो है साहब श्रीरामचन्द्र ताहिको एक नूर सबके दिलमें है. सोई नूर तें प्रकाश पहिचानु जौनेके करते जग सब उत्पन्न भया है ऐसो जो साहब ताको तू बेचून कहे निराकार न जान वे साहब साकारहैं औनिर्गुषसगुणकेपरे हैं । तामें प्रमाण कबीरजीको साक्षी ॥ श्रूप अखण्डित ब्याप चैतन्य चैतन्य । ऊंचे नीचे आगे पीछे दाहिन बायँ अनन्य ॥ बड़ा ते बड़ा छोटते छोटा मीहीते सब लेखा ।। सबके मध्य निरन्तर साई दृष्टि दृष्टि सों देखा । चाम चश्मस नजरिन आवै खोजु रूहके नैना ॥ चून चगून बजुद न मानु नैं सुभा नमूना ऐना ।। ऐना जैसे सब दशावै जो कछु वेष बनावै । ज्यों अनुमान करै साहबको त्यों साहब दरशावै ॥ जाहि रूह अल्लाहके भीतर तेहि भीतरके ठाई । रूप अरूप हमारि आश है हम दूनहुंके सांई जो कोउ रूह अपनी देखै सो साहबको पेखा। , कहैं कबीर स्वरूप हमारा साहबको दिल देखा ॥ ३३६ ॥ रेख रूप जेहि है नहीं, अधर धरो नहि देह ॥ गगन मॅडलके मध्यमे, रहता पुरुष बिदेह ॥ ३३७॥ कैसो साहब है कि जाके रूप रेखा नहीं है औ बिशेषिकै देह धारण कीन्हें है अर्थात् रंसहीरस देह धारण किये है पाञ्चभौतिक नहीं है । ॐ अधर जों आकाश तामें देह कबहूँ नहीं धेरै अर्थात् जो कबहूँ न रहै तब न देह धौरै