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पृष्ठ:बीजक.djvu/६८२

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( ६४६) बीजक कबीरदास । वात सर्वत्र पूर्ण है गगनमण्डल के मध्यमें कहे तीन आकाश हैं एक नीचे एक मध्यमें एक ऊपर से तीनों आकाशमें वा विदेह पुरुष पूर्ण है ॥ ३३७॥ धरयो ध्यान वा पुरुषको, लाये बज्र केवाल ॥ देखिकै प्रतिमा आपनी, तीनों भये निहाल ॥३३८॥ वह परम पुरुष साहब जे श्रीरामचन्द्र हैं,नव दूब दल जिनको रसरूप शरीर है तिनको ध्यान धरो जो कहो आनन्द को रूप तो सपेदको है है नव दूर्बादल श्याम कैसे कहौ हैंतो जहां बहुत श्वेताई है तहां हरित रंग देखही परे है जो कहो यह कैसे अनुभव होइ तो सुनौ सब ते श्वेत स्वच्छ गंगाको जल है सौ जहां गंगाहूमें बहुत जल है बड़ी गहिराई है तहां हरितई देखि परै है । जों कहौ साहबको कैसे जानैं सो वज्र कपाट लगाइबेकी बिधि आगे लिखि आये हैं जलन्धर बन्ध लगायकै झटकादैकै वज्र कपाट लगायो सुरति कमलमें जो रकारको उद्गार ओङ्करै है सो सुनि परी है तब वही रकार को जो ध्यान करै तब सो ध्यान किये साहब आपही प्रकट होय है । यही ध्यान करिके तीनों ब्रह्मा विष्णु महेश अपनी अपनी प्रतिमा देखिकै निहाल भये हैं अर्थात् साहबके समीप हजारन ब्रह्मा विष्णु महेश देखिकै या निहाल भये कि धन्य हमारी भाग्य है कि श्रीरामचन्द्रके दारमें हमहूं हैं यहां तो कोटिन ब्रह्मांडके ब्रह्मा विष्णु महादेव मोजूद हैं ठाढ़े स्तुति करै हैं ॥ ३३८ ॥ यह मनतो शीतल भया, जब उपजा ब्रह्म ज्ञात ॥ जेहि बैसन्दर जग जरै, सो पुनि उदक समान॥३३९॥ | जब ब्रह्मज्ञान भयो तब यह मन शीतल द्वैगयो अर्थात् संकल्प विकल्प छोड़ि दियो तपिबो मिटि गयो सो जौने बैसन्दरते कहे ब्रह्म ज्ञानते मनको संकल्प विकल्प छूट गयो जग जरि गयो अर्थात न रह्यो तौन जो ब्रह्म ज्ञान सो उदक जो साहबकी प्रेमा भक्ति तामें समान अर्थात् जब साहबकी भक्ति भई तब वा ब्रह्माग्नि न रहि गई यामें ते या आयो कि ज्ञानको फल साहबकी भक्ति है तामें प्रमाण ॥ * ब्रह्मभूतः प्रसन्नात्मा न शोचति न कांक्षति ॥ समः