पृष्ठ:बीजक.djvu/६८३

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साखी। (६४७) सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तलभते पराम् ॥ १॥ भक्तिमेछागुण हैं ॥ * केशघ्नी शुभदामोक्षलघुताकृत्सु दुर्लभा । सांद्रानन्दविशेषात्मा श्रीकृष्णाकर्षणी मता ॥ भक्तिमें छे गुण हैं । १। एक तो सम्पूर्ण क्लेशको दूर कर देइ है । अर्थात् संसार दूर कर देइ है । फिर भक्ति कैसी है २ कि शुभदा है कहे सम्पूर्ण शुभ गुण दिव्य गुण देई है । और३ अपने आनन्द ते मोक्षके सुखको लघु करि देई है। और ४ दुर्लभा है अर्थात् जब ब्रह्म द्वैगयढ़ के ऊपर होइ है। और सान्द्रानन्द विशेष आत्मा है कहे परमानन्द रूपा है और श्रीकृष्ण को आकर्षण करिलै अवै है कहे जाकी भक्ति होइ है तो श्रीरघुनाथजीको दर्शन होई है । सो श्रीकबीरजी भक्ति को सिद्धान्त राख्यो है कि, बिना भक्ति रघुनाथजी कोई प्रकार से मिल सकते नहीं हैं और जहां भक्त पहुंचै है तहां दूसरो पहुंच सके नहीं है । सब ते ऊंची भक्ति की सीढी है। बिना भक्ति साहब नहीं मिलें तामें प्रमाण श्रीकबीरजीको भवतरण ग्रन्थको ॥ * सुनु धर्मदास भक्ति पद ऊंचा । तिन सीढ़ी नहिंकोउ पहूंचा ॥ वर्त एक है भक्तिको पूरा । और वर्त सब कीजै दूरा ॥ और वर्त सबै जमकी फाँसी । भक्तिहि वर्त मिलें अबिनासी३ ३९ जासों नाता आदिको, विसरि गयो सब ठौर ॥ | चौरासीके वश परे, कहत औरो और ॥ ३४० ॥ नौने साहब आदिको नातारहै कहे जाको सदाको दास अंश तौने राम चन्द्रको भक्ति बिसरी गयो मायामें परि चौरासी लाख योनिके वश है और को और कहै हैं अर्थात कहूं कहै हैं किं वा ब्रह्म मैंहीं हौं कहूं आमैको मालिक मानै हैं कहूं नाना देवतन को स्वामी मानै हैं परंतु संसार काहू को छुड़ायो न छूट्यो ॥ ३४० ॥ १ अविद्या, अस्मिता, राग, देव, अभिनिवेश यही पाँच कैश हैं अनित्य पदार्थों में नित्य बुद्धि अनात्म पदार्थों में आत्म बुद्धिका नाम अविद्या है तात्पर्य यह एक अज्ञान जन्य जो २ कार्य हैं सब अविद्या कृत है । मैं राजा, मैं पण्डित मैं ज्ञानी मैं कुलीन इत्यादि अहङ्कार युक्त कार्यको अस्मिता कहत' प्रिय वस्तुमें प्रति होना राग । और अनिष्ट पदार्थमें अप्रातिका होना द्वेष । एवं विना विचारे किसी कार्यका एक प्रकारका मान कर उस में आग्रह बुद्धिको अभिनिवेश कहते हैं ।