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(१८) बीजक कबीरदास ।
हबके सब सामग्री साहबकोलोक साहिबैको रूपवर्णन करिआये हैं । जो साहबके लोकको प्रकाश सर्वत्रपूर्णरहा तौसाहब पूर्णईरहे सर्वत्र सो जीव रामनाम को और और अर्थ कारकै और और मतनमें लग्यो तेहिते साहब छपायगये साहबको जीव न जानतभये । सो तैनै सेविकै मैं आयों कि जीवते “संधि कहे बीच' परिगयो है, रामनाभ को सांच अर्थ भूलिगयो। सो जाने संसारमें यह सवै है तौनी जगह में आयो कि मैं याको सोवत ते नगाय देहुं कि, जौने २ मतनमें तुम लगेही सो रामनाम को अर्थ नहीं है, येसंसारके देनवारे हैं, तुम संसारी वैगये, सब स्वप्न देखौ हौ, वह अर्थ नाम को मिथ्या है, तुम जागिकै रामनामार्थ जे साहब हैं तिनको जानौ ॥ २२ ॥
दोहा-सात सूरतिके वाहिरे, सोरह संख्यके पार ॥ तहँ समरथको बैठका, हंसनकेर अधार ॥ २३ ॥
साहब कैसेहैं कि सात सूरतिजे कहिआये तिनके बाहिरहैं औ षोड़शकला जीवको छान्दोग्य उपनिषदमें तत्वमसिके पूर्वलिख्यॉहै सोइहां कहे हैं कि सोरहसंख्यके कहे सोरहसंख्यक जे जीवहैं अर्थात् षोड़शकलात्मक जे समष्टि जीव जे लोकके प्रकाशमें रहैं हैं शुरूप तिन के साहब पार हैं सो जहां सौरह संख्यकहे षोड़शकलात्मक जीवहै तिनके पार वह लोक साहब कोहै। तहां समर्थ जे साहब तिनको बैठकाहै कहे वहीलोक में हैं । समर्थ जो कह्यो सो समर्थ साहिबही हैं जीव समर्थ नहीं है उन्हांके किये जीव समर्थ होइहै यह आपको झूठही समर्थ मानिलियो है याही हेतुते जीव संसारी भयो है । सो हंसन के आधार तो परमपुरुष श्रीरामचन्द्रहीहैं तेहिते जब हंसरूप पावै तब साहब के पास वह लोकमें बस जाय ॥ २३ ॥ |
दो०-घरघर हमसबसों कही, शब्द नसुनें हमार ॥ ते भवसागर डूवहीं, लख चौरासीधार ॥ २४ ॥ ,
साकबीरजी कहैहैं कि घर २ हम सब सों बातकही हमारा कह्यो सांच शब्द को अर्थ कोई नहीं समुशैहै नासुनै है ते संसाररूपी सागरके चौरासीलाख योनि जो हैं धारा तामें डूबिजाय ॥ २४ ॥