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पृष्ठ:बीजक.djvu/६९९

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बघेलवंशवर्णन। जहां धर्म रहती तहँ माया । जहां रूप रहती तहँ छाया ॥ लै तिय सँग मोहिं शीश नवाई । मोसों बहुत आशिषा पाई ॥ दशराके दिन किय प्रस्थाना । पुरलोगनको करि सन्माना । कह कबीर पुनि म ढिग आई । कीन्ही विनय प्रमोद बढ़ाई ॥ प्रभु मोहिं जिमि दीन्ह्या वरदाना । तिमि मम सँग कीजिये पयाना ॥ तब मैं सुनि यह ताकार बानी । हँसिकै वचन कह्यो सुखमानी ॥ दोहा-तुम सेवा अति मम करी, दोउ जन्मके मोर ॥ भक्त अहौ ताते चलहुँ, संग तज नहिं तोर ॥२७॥ विजय मुहूरत अबाहें नृप, गुण मम वचन प्रमान॥ मुदित निसान बजायकै, वेगिहिं करहु पयान॥२८॥ | छंद-वर मानि मोर निदेश, जयसिद्ध नाम नरेश । पितु पितामह ढिग जाय, बहु भाँति शीशनवाय॥१॥ स्वरदाहिनो नृप साधि,चढ़ि चल्यो हय सुख कोधि॥ तेहि समय पुरजन यूह,जुरि दिय अशीस समूह ॥२॥ जस देश यह गुजरात, तसदश लडो विख्यात ॥ तुब पर देवी मात, रक्षक रहै दिन रात ॥ ३ ॥ तिमिरानिभरि अति चाउ, पारि सासु ससुराह पाँउ ॥ कह छोड़ियो नाहिं छोह, नहिं किह्यो कबहू कोह॥४॥ पुनि रानि युत जयसिद्ध, यश जासु जगत प्रसिद्ध ॥ मोहिं सहित साधु समाज, संग लै चमू छबि छाज ५॥ किय गवन मग रणधीर, तनु धरे मनु रसबीर ॥ बिच बीच पथ कार वास, पुरगढ़ा कोसहुलास॥६॥ पहुँच्यो महीश सुजान, लिय भूप तहँ अगवान ॥ निज महल गयो लेवाय, दिय नजर बहु सुख छाय ७॥ जयसिद्ध पुनि नरराय, सरि नर्मदामें जाय ॥ तिय सहित कार स्नान, धन अमित दीन्ह्यो दान८॥