पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/१३२

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AAAAAAAAAAAAAAA AAAAAAAAAA 8 वीजक मूल ही सामत प्रानि पहूँचे । पीठ सांटि भल टुटिहैं । हो ॥ गढ़े लोग कुटुंम सब देखें । कहे काहु के न छुटिहें हो । एकतो निहुरि पांवपरि विनवे । बिनती किये नहिं माने हो ॥ अनचीन्हे रहेहु न कियेहु । चिन्हारी सो कैसे पहिचनवेउहो ॥ लीन्ह बुलाय वात नहिं पूछ । केवट गर्भ तन बोले हो । जाकी गांठि समर कछु नाहीं। सो निर्धनिया है डोलेहो ॥

जिन्ह सम युक्ति प्रगमन कै राखिन । धरिन मच्छ है
  • भरि डेहरि हो ॥ जेकर हाथ पांव कछु नाहीं। धरन ।

लाग तेहि सो हरिहो ॥ पेलना अछत पेलि चलु। वारे । तीर तीरका टोवहु हो ॥ उथले रहहु परहु । 'जनि गहिरे । मति हाथहु की खावहु हो ॥ तरकै . घाम उपरकै भुंभुरी । छॉह कतहुँ नहिं पायहु हो । ऐसेनि जानि पसीझहु सीझहु । कस न छतुरिया। छायहु हो । जो कछु खेड़ कियह सो कीयेहु।बहुरि खेड कस होइ हो।सासु नॅनद दोऊ देत उलादन] रहहु लाज मुख गोई हो ॥ गुरु भो ढील गोनी htrnament