पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/१४७

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१४८ . * वीजक मूल * कहु कहाँ समाय ॥ ताकर जो कछु होय अकाज। ताहि दोप नहिं साहेव लाज ॥ हर हर्पित सो कहल । मेव । जहाँ हम तहाँ दुसरा न केव ॥ दिना चार मन धरहु धीर । जस देखहिं तस कहहिं कबीर १९ ॥ वसंत ॥ १२ ॥ हमरे कहलक नहिं पतियार ।। ग्राप चूड़े नर । सलिल धार ।। अंधा कहै अंधा पतियाय । जस ! विस्वा के लगन धराय ॥ सो तो कहिये ऐसो अबूझ । खसम ठगढ़ ढिग नाहिं सूझ ॥ आपन थापन चाहें मान | झूठ प्रपंच सॉच करि जान ॥ झूठा कबहुँ न करिहैं काज । हाँ वरजों तोहि सुनु । निलाज ।। छाइहु पाँखड मानो वात । नहिं तो पर- । बेहु यमके हाथ । कहहिं कबीर नर कियो न खोज। भटकि मुवा जस वन के रोझ ॥ २२ ॥ -****-