पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/१४९

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1१५० * बीजक मूल * सनक सनंदन हारिया । और की केतिक पाश ।। छिलकत थोथे प्रेम सों । मारे पिचकारी गात ॥ के है लीन्हों वसि आपने फिर २ चितवत जात | ज्ञान है डांगले रोपिया । त्रिगुण दियो है साथ ॥ शिवसन ब्रह्मा लेन कहो है । और की केतिक बात ॥ एक ओर सुर नर मुनि गढ़े ॥ एक अकेली श्राप ।। दृष्टि परे उन काहु न छोड़े । के लीन्हा एक थाप ॥ जेते थे तेते लिये । पूँघट माहिं समोय ।। कजल । वाकी रेख है । अदग गया नहिं कोय ।। इंद्र कृष्ण । । दारे खड़े । लोचन ललिचि लजाय | कहहिं कबीर ते ऊवरे । जाहि न मोह समाय ॥ १॥ ___ चाचर ॥ २॥ जारो जग का नेहरा । मन वौरा हो॥ जामें सोग संताप समुझि मन चौरा हो॥ तन धन से क्या गर्भसि मन बौरा हो । भस्म कीन्ह जाके साज समुझि मन बरा हो। विना नेवका देवघरा मन वौरा हो । wala