पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/१५०

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  • बीजक मूल * १५१

विन कहगिल की ईंट समुझि मन वौरा हो ।। काल चूत की हस्तिनी मन वौरा हो । चित्र रचो जगदीस समुझि मन वौरा हो ।। काम अंध गज वशि परे मन वौरा हो । अंकुश सहियो शीश समुझि मन बौरा हो । मर्कट मूठी स्वाद की मन बोरा हो॥ लीन्हों भुजा पसारि समुझि मन चौरा हो । छूटन की संशय परी मन वौरा हो॥ घर घर नाचेउ.द्वार समुझि मन वौरा हो। ऊंच नीच समझेउ नहीं मन चौरा हो । घर घर खायेउ डांग समुझि मन बौरा हो । ज्यों सुवना नलनी गह्यो मन चौरा हो । ऐसो भरम विचार समुझि मन बौरा हो । पढ़े गुने क्या कीजिये मन बौरा हो । अंत बिलैया खाय समुझि मन बौरा हो ॥ सूने घरका पाहुना मन वौरा हो ॥ __ज्यों आवे त्यों जाय समुझि मन वौरा हो ॥ RAAM EEEEEEEEE