पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/१७२

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  • वीजक मूल * १७३॥

। रसना रंभन होत है । कोई न सके निरुवार ११७ . बेडा बाँधिन सर्पका । भवसागर के माहि ॥ जो छोड़े तो बूड़े । गहे तो उसे बाँहि ॥ १८ ॥ हाथ कटोरा खोवा भरा । मग जोवत दिन जाय ॥ कभीरा उतरा चित्तते । छाँछ दिया नहिं जाय ११६ . एक कही तो है नहीं । दोय कही तो गारि ॥ है जैसा रहे तैसा । कहहिं कवीर विचारि ॥१२॥ अमृत केरी पूरिया । बहु विधि दीन्ही छोरि ।। आप सरीखा जो मिलै । ताहिं पियाऊँ घोरि॥१२१॥ अमृत केरी मोटरी । शिर से धरी उतार ॥: जाहि कहाँ मैं एक है। मोहिं कहे दुइचार ॥१२२॥ जाके मुनिवर तप करें । वेद थके गुणगाय ।। सोई देउँ सिखापना । कोई नहिं पतिप्राय ॥१२३॥ एकै ते अनंत भौ । अनंत एक लै प्राय ।। परिचय भइ जब एकते । अनंतौ एकै माहिं समाय ।। एक शब्द गुरु देवका । ताका अनंत विचार ॥ 1 थाके मुनि जन पंडिता । वेद न पावे पार १२६ -rrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrrr