पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/१७१

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1. १७२ वीजक मूल मानुप ह्वे के ना मुवा । मुवा सो डाँगर ढोर ॥ एकौ जीव ठोर नहिं लागा। भयासो हाथी घोर १०६ मानुप तें बड़ पापियां । अक्षर गुरुहि न मान ।। ३ वार वार बन कुकुही । गर्व धरे प्रो ध्यान ।।११०॥ मानुप विचारा क्याकरे। कहे न खुले कपाट ॥ . स्वनहा चौक बैठाइये फिर फिर ऐपन चाट ॥११॥ . मानुप विचारा क्या करे । जाके शुन्य शरीर ॥ जो जीव झांकि न उपजे तो काहपुकार कबीर११२ ॥ मानुप जन्म हि पायके । चूके अवकी घात ।। जायपरे भवचक्र में । सहे घनेरी लात ।।११३॥ रतन ही का जतन करू । मांडीका सिंगार ॥ आया कवीर फिरा गया । झूठा है हंकार ॥११॥ मानुप जन्म दुर्लभ है । बहुरि न दूजी वार । पक्का फलजो गिरपरा बहुरि न लागे डार।। ११५।। वांह मरोरे जात हो । मोहिं सोवत लिये जगाय ॥ कहहिं कवीर पुकारि के। इपिंड ह्वे कि जाय ११६ १ साखि पुरंदर ढहिं परे । विवि अक्षर युग चार ।। mrimmertime