पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/१७४

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...... .... वीजक मूल * १७५, सकल सपंदा ले गया। विषहरि लागा, सोय १३४ घुघुची भरके वोइये। उपजा पसेरी आठ ॥ डेरा परा काल का । सांझ सकारे जात ॥१३॥ मन भरके बोइये । धुंधुची भरि नहिं होय ॥ कहा हमार माने नहीं। अंतहु चले विगोय ॥१३६॥ पापा तजे हरि भजै । नख सिख तजै विकार ।। सब जीव से निवैर रहे । साधु मता है सार॥१३७॥ पछा पछी के कारने । सब जग रहा भुलान ।। निर्पछ होयके हरि भजे । सोई संत सुजान ॥१३८॥ बड़े गये बड़ा पने । रोम रोम हंकार ॥ सतगुरु के परचै विना । चारो वरन चमार॥१३॥ माया तजे क्या भया । मान तजा नहिं जाय ।।। जेहि मान मुनिवर ठगे । मान सवन को खाय ।१४०१ माया के भक जग जरे । कनक कामिनी लाग ।। कहहिं कबीर कसवाचिहो। रुई लपेटी अोग ॥ १४१॥! माया जग साँपिन भई । विष लै पैठि पताल ॥ सब जग फंदे फंदिया । चले कबीरू काछ॥१४२॥ । ARRAAN