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पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/१८४

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  • बीजक मूल * १८५

सतगुरुवचनसुनोहोसंतो। मति लीजै शिर भार । हौं हजूर गढ़ कहत हो । अब तें समर सॅभार २२० । वो करवाई वेलरी | और क्वा फल तोरु ।। सिद्ध नाम जब पाइये । बेलि विछोहा होहि २२१ सिद्ध भया तो का भया । चहुँदिशि फूटी वास ।। अंतर वाके वीज है । फिर जामनकी आस २२२ ॥ परदे पानी ढारिया । संतो करो विचार ॥ शरमा शरमी पचि मुवा । काल घसटिन हार २२३ । अस्तिकहोंतो कोईन पतीजे । विनाअस्तिका सिद्ध ।। कहहिं कवीर सुनो हो संतो । हीरी हीरा विद्ध २२४ ॥ । सोना सज्जन साधुजन । दृटि जुरे सौ वार ।। कुजन कुंभ कुम्हार का । एकै धका दरार ॥ २२५ ॥ काजर केरी कोठरी । बुड़ता है संसार ! बलिहारी तेहि पुरुषकी । पैठिके निकरनहार ॥२२६॥ काजर ही की कोठरी । काजर ही का कोट ।। तोंदी कारी ना भई । रहा सोपोटहि भोट २२७ २ ३ अर्व खर्व ले दर्व है । उदय अस्त लों राज ॥ AAAAAAAAAAARTHolkarki