पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/१८६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
  • वीजक मूल * १८७

ताहको राहू असे । मानुप केहिके भूल २३७ । नैनन अागे मन वसे । पलक पलक करे और ॥ तीन लोक मन भूप है । मन पूजा सब और ॥२३॥ मन स्वारथी श्राप रस । विषय लहर फहराय ॥ मनके चलाये तन चलै । जाते सरबस जाय ॥२३॥ कैसी गति संसारकी । ज्यों गांडर की गट ॥ एक परा जो गाड में । सबै गाड में जात॥२४॥ मारग तो कठिन है । वहां कोई मत जाय ॥ गये ते बहुरे नहीं । कुशल कहै को आय ॥२४॥ मारी मरे कुसंग की । कैरा साथे बेर ॥ 1वै हालें वै चींधरे । बिधिने संग निवेर ॥२४२॥ * | केरा तबहिं न चेतिया । जब ढिग लागी बेर ।। अबके चेते क्या भया । जब कांटन लीन्हा घेर २४३ ॥ जीव मर्म जाने नहीं । अंध भया सब जाय ॥ वादि द्वारे दाढ़ि न पावै । जन्म जन्म पचिताय २४४ जाको सतगुरु ना मिला। व्याकुल दहुँदिस धाय ॥ श्रांखिन सूझै बावरा । घरजरै घूर बुताय ॥२४॥