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पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/१८८

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  • बीजक मूल १६१

आगलसोच निवारिक । पाछल करहु गोहारि २७१ ।

एक समाना सकल में । सकल समाना ताहि ॥

कवीर समाना बूझमें । जहां दुतिया नाहिं २७२ ॥ ' एक साधे सव साधिया । सव साधेएक जाय ।। जैसा सींचे मूलको । फूले फले अघाय ॥२७॥ जेहि वन सिंह न संचरे । पंछी ना उड़ि जाय ॥ सोचन कवीर न हींडिया।शून्य समाधि लगाय २७४ । सांच कहो तो है नहिं । झूठहिं लागु पियारि ॥ मो शिर ढारे ढेंकुली । सींचे और की क्यारि २७५ घोल तो अमोल है । जो कोई बोले जान ।। हिये तराजू तौलिके । तब मुख वाहर पान ॥२७॥ कर बहिया वल आपनी, छाड़ि विरानी प्रास ॥ जाके आंगन नदिया वहे । सो कस मरे पियास २७७ वो तो वैसा ही हुा । तू मत होहु अयान ॥ वो निर्गुणियात गुणवन्ता । मत एकहिं में सान ।। जो मतवारे राम के । मगन होहिं मन माँहि ॥ ज्यों दर्पण की सुन्दरी । गहे न आवे वाँहि २७६ KARAAAAAAAAAAAAAAAMRAPARITAMARHARARIRAAMA