पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/५०

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. ४ * बीजक मूल ४६ एकै काल सकल संसारा । एक नाम है।

  • जगत पियारा ॥ त्रिया पुरुष कछु कथो न जाई ।

सर्वरूप जग रहा समाई ॥ रूप निरूप जाय नहिं । बोली । हलुका गरुवा जाय न तोली ॥ भूखन तृपा धूप नहिं छाहीं । सुख दुख रहित रहे तेहि माहीं॥ साखी-अपरंपर रूप बहुरंगी। आगे रूप निरूप न भाय। वहुन ध्यानकै खोजिया । नहितिहि संख्या ओय ॥ ७७ ॥ रमैनी ॥७८॥ ____ मानुष जन्म चूकेहु अपराधी । यहि तन केरि । बहुत हैं साझी ॥ तात जननि कहैं पुत्र हमारा ।। स्वास्थ जानि कीन्ह प्रतिपारा ॥ कामिनि कहै मोर पिउ अाही । वाघिनि रूप गिगसा चाही ॥ सुतहु । कलत्र रहें लौ लाई । यमकी नाई रहे मुख वाई ।।। काग गिद्ध दोउ मरण विचारे । सुकर श्वान दोउ। पंथ निहारे !! अग्नि कहै मैं ई तन जारों । पानि कहै मैं ज़रत उवारों॥ धरती कहै मोहि मिलि जाई ।