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पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/५४

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  • बीजक मूल

बहुरूपा । जन भँवरा अस गये वहृता ।। उपजि. विनसि फिर जुइनी आवे । सुख को लेश सपनेह । नहिं पावै॥दुख संताप कष्ट बहु पावे । सो न मिला जो जरत बुझावे ॥ मोर तोर में जरे जग सारा । धिग स्वारथ झूग हंकारा ॥ झूठी श्रास रहा जग लागी । इन्हते भागि बहुरि पुनि श्रागी ॥ जेहि हितके राखेउ सबलोई। सो सयान बाँचा नहिं कोई॥ साखी-आपु आपु चेतै नहीं। कहों तो रुसवा होय । ____कहहिं वीर जो आपु न जागे । निरास्ति अस्ति न होय८४

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