पृष्ठ:बीजक मूल.djvu/५६

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__ वीजक मूल ५५ ॥ विम्व प्रकासै ॥ विनु चरणन को दुहुँ दिशि धावै ।। विनु लोचन जग सूझै । शशा उलटि सिंहकोई ग्रासै । ई अचरज कोइ बूझे ॥ौधे घड़ा नहीं ! जल बूड़े । सीधे सो जल भरिया ॥ जेहि कारण ! नर भिन्न भिन्न करे। सो गुरु प्रसादै तरिया ॥वैठि । गुफामें सब जग देखे । वाहर किछउ न सूझै ॥ । उलटा वाण पारधिहि लागे । शूरा होय सो बूझै ॥ गायन कहे कबहुँ नहिं गावै । अनबोला नित गावै नटवट वाजा पेखनी पेखै । अनहद हेत बढ़ावै ।। कथनी बदनी निजकै जोवै। ई सब अकथ कहानी।। . धरती उलटि अाकाशहि बेधै । ई पुरुषन की वानी॥ बिना पियाला अमृत अँचवै । नदी नीर भरि राखै ॥ कहहिं कवीर सो युग युग जीवे ॥ जो राम सुधारस चाखै ॥ २॥ शब्द ॥३॥ सन्तो घरमें झगरा भारी॥ राति दिवस मिलि उठि उठि लागे । पाँच