पृष्ठ:बुद्धदेव.djvu/१०६

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अनेक जाति संसारं संधाविसमनिव्वसं । गहकारकं गवसंतो दुःखजाति पुन:पुनः। गहकारक दिट्ठोसि पुन गेहं न काहसि। सव्वा ते फासका भग्गा गहकूटं विसंकितं । विसंखारगवं चिचं तरहानं खयमज्मगा। -

  • मैं अनेक जन्म तव संसार में जन्म के दुःखों को सहता क्षुधा इस

पर के वनानेबाले को ददता रहा, पर यह मुझे न मिला । है घर के यनानेवाले ! मैंने प तुझे देखा । अब हू फिर दूसरा पर न बना सकेगा । मन तो तेरे एव सामान तोड़ ताड़ डाले । तेरा गृहाट ध्वंस कर दिया । मेरा पिच अव संस्कारहीन हो गया और कृष्णा का भी क्षच हो गया।