पृष्ठ:बुद्धदेव.djvu/११७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

( १०४ ) गौतम बुद्ध अजपाल से उठकर काशी की ओर जा रहे थे। अभी थोड़ी दूर गए थे कि मार्ग में उन्हें आजोवक संप्रदाय का उपक नामक एक मनुष्य मिला । यह आजीवक मार्ग में सामने से आ रहा था। मार्ग में गौतम को दक्षिण से अपने सन्मुख आते हुए देख उनकी आनन्दमयी मूर्ति का दर्शन कर. वह अत्यंत विस्मित हुआ। उनका ब्रह्मानंद में मग्न रूप उसके अंतःकरण में अंकित हो गया। पास पहुंचने पर उसने उन्हें प्रणाम कर पूछा- " भगवन् ! आप के मुख को प्राकृति शांत, प्रसन्न और आनंदपूर्ण देख पड़ती है, जिससे मालूम होता है कि आप ब्रह्मनिष्ठ हैं। कृपा- पूर्वक मुझे यह बतलाइए कि आपने किस गुरु के मुख से इस अलौकिक ब्रह्मज्ञान की शिक्षा ग्रहण की है ।" इस पर महात्मा बुद्धदेव ने हँसकर आजीवक को उत्तर दिया- सब्याभिभू सब्वविदो हमस्मि सब्बेसु धम्मसु अनुप्पलित्तो। सम्बंजयो तनक्खयो विमुत्तो। सणं अभिननाय कमुदिसेय्य ॥ हे आजीवक ! मैंने सब कुछ स्वयं अनुभव किया है और जाना है । मैं सब धर्मों से अलिप्त हूँ, मैंने सब को जीत लिया है, मेरी वासनाएँ जिनसे शरीर ग्रहण करना पड़ता है, क्षीण हो गई हैं और मैं जीवनमुक्त हो गया हूँ। मैंने ये सब बातें स्वयं जानी हैं, मैं किसे बताऊँ जिससे मुझे यह ज्ञान प्राप्त हुआ।

  • यह नंमदाय वैष्णव धर्म का पूर्वरूप था।