सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:बुद्धदेव.djvu/११९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(१३) धर्म-चक्र प्रवर्तन वाचाय ब्रह्मरुतकिन्नरगर्जिताय अंगैः सहस्रनियुतेमि समुद्रताय । बहुकल्पकोटिसदसत्यसुभाविताय कौडिन्यमालपति शक्यमुनिः स्वयंभू ॥ काशी नगर में भिक्षा ले भोजन कर गौतम ने वरुणा नदी पार की और फिर वे ऋपिपतन जंगल के मृगदाव नामक प्रदेश में, जहाँ कौडिन्य, वप, भद्रिय, महानाम और अश्यजित् नामक पंच- भद्रवर्गीय भिक्षु घोर तप करते हुए रहते थे, पहुँचे। ये पंचवर्गीय भिक्ष गौतम को गया में, जब उन्होंने अनशन व्रत त्यागा था, छोड़ कर चले आए थे। उन्हें गौतम से एक प्रकार का नैराश्य हो गया था। उन लोगों ने उन्हें भीरु सममा था और उनका अनुमान था कि गौतम अव योग-भ्रष्ट हो गया। अब उसे बोधि-ज्ञान कभी प्राप्त न होगा। .

गौतम को काशी से अपने आश्रम की ओर आते देख पंच-

भद्रवर्गीयों को अत्यंत आश्चर्य हुआ और वे लोग उनसे उपेक्षा करने लगे और परस्पर कहने लगे कि गौतम तो.अव मिक्षा खा खा के मोटा हो गया है, वह यहाँ कहाँ आ रहा है .. जब गौतम उनके आश्रम में पहुँचे, तब उन लोगों ने उनका अर्घपाद्यादि से सत्कार कर.आसन दिया ।. उन लोगों ने गौतम.से कहा-" कहो गौतम ! अब इधर कैसे तुमने फेरा किया ?" गौतम ने कहा-