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पृष्ठ:बुद्धदेव.djvu/१५०

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माल ' ( १३७ ) चरणों में अर्पित करे। इसी तरह मुझे जो परम निधि प्राप्त हुई है। उसमें से कुछ रत्न मैं आपको समर्पण करता हूँ।" . • यह कह बुद्धदेव वहीं खड़े हो गए और पिता से बोले- "हे पिता ! उठो, आलस्य मत करो । सद्धर्म का आचरण. करो । धर्म करनेवाला इस लोक और परलोक में सुख से रहता है । सद्धर्म का आचरण करो, भूलकर भी असद्धर्म का अनुष्ठान मत करो। सद्धर्म का पालन करनेवाला इस लोक और परलोक दोनों में सुखपूर्वक रहता है । . . . .महाराज शुद्धोदन भगवान् बुद्धदेव का यह उपदेश सुन उन्हें उनके भिक्षुसंघ समेत राजमहल में ले गए और उन्होंने उन्हें वहाँ अनेक प्रकार के भक्ष्य भोज्य खिलाकर उनका और भिक्षुसंघ का सत्कार किया। भोजन कर भगवान बुद्धदेव ने राजमहल में राज- मंत्री, राजपरिवार और राजकर्मचारियों को अनेक प्रकार से धर्म का उपदेश दिया और सब लोगों ने उनका धर्मोपदेश सुनकर आध्यात्मिक शांति लाम की । इस राजमहल के उपदेश में समस्त राजपरिवार और राजमहिलाएँ उपस्थित थी, पर यशोधरा वहाँ नथी। वह अपनी कक्षा में बैठी रो रही थी और धर्मोपदेश सुनने नहीं आई थी। जब लोग उसे बुलाने गए, तब उसने स्पष्ट शब्दों में कह दिया -

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.* उचिठन पमजेच धम्म सुपरिवं घरे। धम्मवारी मुखं ते पस्मिलोके परम्हि ॥ धम्म चरे सुचरित न त दुचरिख । । ..धम्मचारी भुख सेवे अस्मिलोके परम्हि.. ।