सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:बुद्धदेव.djvu/१६२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(१६) कपिलवस्तु-गमन और पंचम चातुर्मास्य

चतुर्थ चातुर्मास्य राजगृह में व्यतीत कर भगवान बुद्धदेव भूमण के लिये अपने संघ समंत राजगृह से रवाना हुए और वैशाली की ओर गए । वहाँ वे वैशाली नगर से थोड़ी दूर पर फूटागार में ठहरे। उनके आगमन का समाचार पा लिछिवी महाराज अपने इष्ट मित्रों समेत उनके दर्शन के लिये पधारे और उनके उपदेश सुनकर उन्होंने अपनी आत्मा को शांत किया । महाराज ने वहीं उनसे अगामीचातुर्मास्यवैशाली में व्यतीत करने के लिये प्रार्थना की और भगवान् ने उनका निमंत्रण स्वीकार किया। कूटागार में एक मास रहने पर उन्हसमाचार मिला कि महा- राज शुद्धोदन बीमार हैं और उनकी कामना है कि वे अंतिम बार अपने प्रिय पुत्र बुद्ध को देख ला बुद्धदेव ने यह समाचार पाते ही पाँच सौ भिक्षुओं को साथ ले वैशाली से कपिलवस्तु की राह ली और कपिलवस्तु पहुँचकर उन्होंने न्यग्रोधाराम में आसन लिया। वहाँ से वे कपिलवस्तु में महाराज शुद्धोदन के राजमहल में उन्हें देखने के लिये पधारे और महाराज को अपने अमूल्य उपदेश सुना कर उन्होंने उनकी आत्मा को शांति प्रदान की । तीसरे दिन महा- राज शुद्धोदन इस असार संसार को त्याग परलोक सिधारे। बुद्धदेव ने स्वयं अपने हाथों से अपने पिता का अग्नि-संस्कार किया और शास्त्रानुसार उनकी अंत्येष्टि क्रिया की। इस बीच में जब तक वे कपिलवस्तु में रहे, अपनी विमाता महाप्रजावती और अन्य शाक्य