पृष्ठ:बुद्धदेव.djvu/१६१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

' (१४८ ) महात्मा बुद्धदेव के पदार्पण करते ही बड़ी वृष्टि हुई और प्रजा के सव कष्ट दूर हो गए। वहाँ भगवान् बुद्धदेव ने रत्नसूत्र का उपदेश किया और पंद्रह दिन महाराज के अतिथि रहकर वे राजगृह को लौट गए और वहीं उन्होंने अपना चतुर्थ चातुर्मास्य व्यतीत किया। - - . और बाल का कंवल पहनता था। उसके मत से हिंसक और खादक समान पापी थे और यह लताछेदन को माणिवध के समान ही दूषित मानता था । [ 8 ] ककुध कात्यायन एक विधया ब्राह्मणी का पुत्र था। ककुध वृक्ष के नीचे उसका जन्म हुआ था, इसलिये उसे लोग ककुध और कात्यायन गोत्री ब्राह्मण के पालने से उसे कात्यायन कहते थे । अपने पालक कात्यायन ब्राह्मण के मरने पर उसने संन्यास ग्रहण किया था। उसका मत था कि शीतल जल में अनेक जीव रहते हैं, अत: जल को बिना उम्ण किए व्यबहार में नहीं लाना चाहिए । शीतल जल के व्यव- हार से हिंसा दोष होता है । [५] संजय के शिर में संजय वा कपि- त्य के फल के समान वनौरी थी, इसलिये उसे लोग संजय कहते थे। वह वेलास्थि नामक दासी का पुत्र था। उसका मत था कि इस जन्म में जिस माणी में जो भाव विदामान रहता है, ठीक वही भाव लेकर वह दूसरा जन्म ग्रहण करता है । [६] निय--नायपुत्र नाथ नामक एक कृपक का पुत्र था। उसके पांच सौ शिष्य थे । जैनियों का कथन है कि पार्श्वनाथ के अनुयायो को नायपुत्र कहते हैं।... :: ::. :