( १६० ) - उनके आमंत्रण के लिये तैयारी कर के अनेक खाद्य द्रव्य छकई पर लादकर वे चातुर्मास्य पाने के पूर्व ही वसंत ऋतु में श्रावस्त को खाना हुए। . भगवान् बुद्धदेव शिंशुमार में अपना चातुर्मास्य व्यतीत कर वह से श्रावस्ती आए और वहाँ दस पाँच दिन रहकर पश्चिम दिशा में कुरुपांचाल की ओर चले गए । एक दिन वे कर्मासम्म नामक गाँव में प्रातःकाल गए। उस गाँव में मागंधय नामक एक ब्राह्मण रहता था। उस ब्राहाण की एक अति रूपवती कन्या थी जिसका नाम मागंधी था । ब्राह्मण सदा इस चिंता में रहता था कि यदि कोई रूपवान विद्वान् ब्राह्मण वा क्षत्रिय मिले तो वह उसके साथ अपनी उस परम रूपवती कन्या का विवाह कर दे । जब भगवान बुद्धदेव उस ब्राह्मण के गाँव से होकर प्रातःकाल निकले तो मागंधय ब्राह्मण ने जो उस समय शौच को जा रहा था, उन्हें स्नातक जान प्रणाम कर गाँव के बाहर ठहरने के लिये उनसे प्रार्थना की और वह भागा हुआ अपनी स्त्री के पास गया। उसने हर्ष से अपने स्त्री से कहा- "लो, ईश्वर ने घर बैठे मनोरथ पूरा कर दिया । अभी एक स्नातक इस गाँव में आया है। मैं शौच को जाता था; दैवयोग से वह गाँव के बाहर मिला । वह अत्यंत रूपवान है । चलो देख लो, मुझे आशा है कि तुम भी उसे देखकर पसंद करोगी। मागंधी को भी साथ लेती चलो । यदि हो सके तो आज ही मागंधी का उसके साथ पाणिग्रहण करा दें.।" उसकी स्त्री उसकी बात सुन अपनी कन्या के साथ चटपट चलने को तैयार हो गई और तीनोंउस स्थान पर
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