( १६१ ) गए, जहाँ ब्राह्मण भंगवान् बुद्धदेव को ठहराकर घर गया था। पर इसी वीच में बुद्धदेव वहाँ से थोड़ी दूर चलकर आगे एक वृक्ष , को छाया में जाकर बैठ गए थे। जव वे तीनों वहाँ पहुँचे तव वहाँ उनके पद-चिह्न के सिवाय और कुछ न था। ब्राह्मणी जो सामुद्रिक- शास्त्र की पंडिता थी, उनके पद-चिह्नों को जो मार्ग में अङ्कित हो गए थे, देखकर कहने लगी-ब्राह्मण ! यह तो चक्रवर्ती राजा वा परिबाट बुद्ध के पैरों के चिह हो सकते हैं । भला हमारा ऐसा भाग्य कहाँ जो ऐसे पुरुष को अपना जमाई बनावें। ऐसे महापुरुषों के तो दर्शन ही बड़े भाग्य से हुना करते हैं।" अब तीनों उनके पैरों के चिह्नों को देखते हुए आगे बढ़े और थोड़ी दूर चलकर उस वृक्ष के नीचे पहुँचे जहाँ भगनान् बुद्धदेव योगासन मारे बैठे थे। उन्हें देख ब्राह्मण मारे हर्ष के गदगद हो गया और अपनी स्त्री के साथ वहाँ वैठ उसने कुशोदक ले कन्या को भगवान् बुद्धदेव को समर्पण करना चाहा । पर भगवान् बुद्धदेव ने उससे हँसकर दिखान तण्हं हरति रकिंच न होसि छंदो अपि मेथुनस्मि । . किमेविदं मुत्तकरीसपुरणं पादायितं संफुसितुन इच्छे ।। "हे ब्राह्मण | मार की तृप्ण, आरवि और रति नाम की तीनों अन्याओं को देखकर जब मुझे इच्छा न हुई तो इस मूत्रपुरीष से पर्ण मागंधी को तो मैं पैर से भी स्पर्श करना नहीं चाहता।"
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