( १६९ ) यहाँ भेज दिया। जब राजा श्यामावती के यहाँ पधारे तो .मागंधी उनके साथ वहाँ गई। बात ही बात में वह वीरण स्ठा उसके तार, • ठीक करने लगी । ज्योंही उसने वीणा की खूटी मुरेड़ो, साँप का बच्चा जो उसमें छिपा या निकल पड़ा। मागंधी वीणा फेंककर उठ खड़ी हुई और श्यामावती से कुरुख होकर बोली "अरे दुष्टा ! यह तूने क्या किया ?" महाराज भी रस साँप के वच्च को देख चकित हो गए । अब तो मार्गधी ने श्यामावती पर महाराज के प्राण लेने के लिये प्रयत्न करने का आरोप लगाया। श्यामावती ने बार बार कहा कि साँप को वीणा में डालना तो दूर रहा, मैं तो इसे जानती तक नहीं। पर वहाँ सुनता कौन था। महाराज क्रोध के मारे लाल हो गए और श्यामावती को वाण से वेधने के लिये उन्होंने स्वयं वाण चलाया । पर धन्य अहिंसा का माहाल्य ! वे वाण वरा- वर छोड़े जाते थे, पर श्यामावती के पास तक एक नहीं पहुँचता था । निदान राजा ने श्यामावती का निर्दोष होना स्वीकार किया और उसकी सत्यता का प्रभाव देस वे उसकी शरण को प्राप्त हुए। पर श्यामावती ने कहा-"महाराज ! आप भगवान बुद्धदेव की
- पुढघोष ने मपद की धकथा में लिखा है कि सजा ने पथ बार
चला व पास सभायो की ओर जाकर फिर लौटशार। उस सनद रखा ने स्वागायती के पैर के पास बैठकर कहा था- सम्मुहामि पमुव्हामि सम्ममुहति ने दिया। सामावती में वास्तु त्वं च मे सरणं भव ॥ प्रदंषुत्वासानवती सम्मासन्मुसारिका।